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________________ (३५) वली ते मान, (औचित्याचरणं के०) योग्य एवा आचरणने ( विबुंपति के०) नाश करे . केनी पढ़ें ? तो के ( ननस्वान् के) वायु (पयोवाहमिव के) मेघनेज जेम, वली (प्राणस्पृशां के०) प्राणीना ( विनयं के० ) अच्युडानादिक विनयने (प्रध्वंसं के०) दयप्रत्ये ( नयति के०) पमाडे बे. केनी पढ़ें ? तो के (अहिः के०) सर्प, (जीवितमिव के०) जीवतरनेज जेम कय पमाडे , तेम. अर्थात् जेम सर्प जीवितने क्षय पमाडे २ तेम ते मानी पुरुष विनयनो नाश करे . वली (अंजसा के ) वेगें करी (कीर्ति के) कीर्तिने (प्रोन्मूलयति के ) उन्मूलन करे . केनी पवें ? तो के (मतंगजश्व के०) मदोन्मत्त हस्ती (कैरविणीं के) कमलिनीनेज जेम. अर्थात् हस्ती जेम कमलिनीने उन्मूलन करे ने तेम कीर्त्तिनुं जन्मूलन मान करे ॥५१॥ टीकाः-औचित्येति ॥ पुनराह ॥ मानोऽहंकारो नृणां पुंसां त्रिवर्ग धर्मार्थ कामरूपं हंति नाशयति। कः किमिव ? नीचः मनुष्यः उपकार निकरमिव । यथा नीचः उपकारसमूहं हंति तथा। पुनर्मानः औचित्याचरणं योग्याचारं विबुंपति स्फेटयति ।
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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