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________________ (२३१) एव नयवीथीः न्यायश्रेणिस्तं विदलयन् विध्वंसयन् अन्योऽपि मदांधोहस्ती एतानि वस्तूनि करोति॥५॥ नाषाकाव्यः-रोडकबंद ॥ नंजै उपसम थंज, सुमति जंजीर विहंमै ॥ कुवचन रज संग्रहै, विनय वन पंकति खंडै ॥ जगमें फिरै सुबंद, वेद अंकुश नहिं मान ॥ गज ज्यौं नर मद अंध, सहज सब अनरथ गनै ॥ ५० ॥ वली पण मानना दोषो कहे . शार्दूलविक्रीडितटत्तम् ॥ औचित्याचरणं विलुपति पयोवाहं ननस्वानिव,प्रध्वंसं विनयं नयत्यदिरिव प्राणस्पृशां जीवितम् ॥ कीर्ति कैरविणीं मतंगजश्व प्रोन्मूलयत्यंजसा, मानोनीचश्वोपकारनिकरं दंति त्रिवर्ग नृणाम् ॥ ५ ॥ अर्थः-( मानः के०) अहंकार, (नृणां के०) मनुष्यना ( त्रिवर्ग के०) धर्म, अर्थ, काम, ए त्रण वर्ग जे तेने ( हंति के० ) नाश करे बे. केनी पर्नु ? तो के ( नीचः के) नीच पुरुष, (उपकारनिकर. मिव के०) उपकारसमूहनेज जेम हणे जे तेम.
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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