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________________ ( ए) करमगणयन्नागमणिम् ॥ ब्रमन्ना स्वैरं विनयनयवीथीं विदलयन्, जनः कं नानर्थ जनयति मदांधोधिपश्व ॥ ५० ॥ अर्थः- ( मदांधः के० ) अहंकारें करी गयां डे जावरूप नेत्र जेनां एवो ( जनः के०) प्राणी ( के के) कया (अनर्थ के० ) अनर्थने ( नजनयति के० ) नथी उत्पन्न करतो ? अर्थात् सर्व अनर्थने उत्पन्न करे . केनी पेठे ? तो के (बीपश्व के० ) मदोन्मत्त हाबीज जेम. शुं करतो तो अनर्थने उत्पन्न करे ले ? तो के ( शमालानं के) शमतारूपालान एटले गजबंधन स्तंज तेने (नंजन् के०) जांजतो बतो. वली शुं करतो तो? तो के ( विमलमतिनाडी के०) निर्मलबुद्धि रूप नाडि जे बंधनरा तेने ( विघटयन् के०) तोडतो बतो, वली (उर्वापांशूत्करं के० ) पुर्वचनरूप जे धूड तेना जे समूह तेने ( किरन् के०) विदेपण करतो बतो. वती (भागमणिं के) सिहांत रूप अंकुशने (श्रगणयन् के०) न गणो तो बतो वली (ऊर्ध्या के०) पृ. थ्वीने विषे (स्वैरं के०) स्वेचायें करी (भ्रमन् के०)
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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