SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२१) तिं पुष्टबुकिं वितरति दत्ते । पुनर्यो पुण्योदयं धर्मस्य उदयं व्याहंति विनाशयति । पुनर्यः कुगतिं नरकतिर्यग्गतिं दत्ते।स रोषः सतां हातुं उचितः॥४॥ जाषाकाव्यः-वस्तुबंद ॥ कलह मंमन कलह मंमन करन उदवेग, जस खंमन हित हरन पुःख विलाप संताप साधन ॥ पुरवैन समुच्चरन धरम पुन मारग विराधन ॥ विनय दमन उरगति गमन, कुमति हरन गुन लोप ॥ ए सब लबन जानि मुनि, तजहिं ततबन कोप ॥ ४ ॥ वली पण क्रोधना दोषो कहे . योधर्म ददति बुमं दवश्वोन्मथ्नाति नीतिं लताम् ॥ दंती वेंकलां विधुंतुदश्व क्लिनाति कीर्ति नृणाम् ॥ स्वार्थ वायुरिवांबुदं विघटयत्युल्लासयत्यापदम्, तृष्णां घर्मश्वोचितः कृतकृपालोपः स कोपः कथम्॥ ४ ॥ अर्थः-(सः के०) ते (कोपः के०) क्रोध, (कथं के०) कये उपायें करी टालवाने (चितः के०) योग्य ? अर्थात् कोश् उपायथी टालवा लायक नथी. (यः के०) जे कोप (धमं के०) धर्मनें (द
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy