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________________ (१४) जाषाकाव्यः-अथ शीलको अधिकार ॥ सो श्रपजसको डंक बजावत, लावत कुलकलंक परधान॥सो चारितकौं देत जलांजलि, गुनवनका दावानल दान॥ सोशिवपंथके बार बनावत, श्रापत विपति मिलनको स्थान ॥ चिंतामनिसमान जग जो नर, सीलरतन निज करत मलान ॥ ३७॥ . वली पण शीलना गुणो कहे . व्याघ्रव्यालजलानलादिविपदस्तेषां व्रति दयम्, कल्याणानिसमुल्लसंति विबुधाः सान्निध्यमध्यासते ॥ कीर्तिः स्फूर्ति मियर्ति यात्युपचयं धर्मः प्रणश्यत्यघम्, स्वनिर्वाणसुखानि संनिदधते ये शीलमाबिते ॥ ३७॥ अर्थः- (ये के०) जे मनुष्योने (शीलं के०) ब्रह्मचर्यने (आवित्रते के०) धारण करे . ( तेषां के० ) ते मनुष्योने (व्याघ्र के०) वाघ, (व्याल के०) मुष्टगज वा सर्प, (जल के०) नदी समुजादि, (श्रनलादि के० ) अग्नि श्रादिक जे (विपदः के०) विपत्तियो ने ते ( दयं के०) दय प्रत्ये (व्रति के० ) पामे ले. वली ते पुरुषोने ( कल्याणानि के) .
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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