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________________ ( १८० ) जाषा काव्यः - रोडकछंद ॥ ताहि रिद्धि अनुसरे, सिद्धि अभिलाष धरे मन ॥ विपति संग परिहरे, जगत विस्तरे सुजसघन ॥ जव श्रारति तिहिं तजै, कुगति वंबे न एकबिन ॥ सो सुरसंपति लहै, गदै नहिं जो प्रदत्त धन ॥ ३३ ॥ वली पण अदत्तादानना परम गुणो कहे बे. शिखरिणीवृत्तम् ॥ प्रदत्तं नादत्ते कृतसुकृतकामः किमपि यः, शुभश्रेणिस्तस्मिन् वसति कलहंसीव कमले ॥ विपत्तस्माद्दूरं व्रजति रजनीवांबरमणे, विनीतं विद्येव त्रिदिवशिवलक्ष्मीर्जजति तम् ॥ ३४ ॥ अर्थः- ( यः के० ) जे पुरुष, ( कृतसुकृतकामः ho ) को बे सुकृत विषे अभिलाष जेणें एवो तो ( किमपि के० ) कांहींपण ( दत्तं के० ) न दीघेला एवा पदार्थने ( नादत्ते के० ) न ग्रहण करेबे, ( तस्मिन् के० ) ते पुरुषने विषे ( शुनश्रेणिः के०) कल्याणनी पंक्ति ( वसति के० ) वसे बे, केनी पेठें ? तो के (कमले के० ) कमलने विषे ( कलहंसीव के० ) राजहंसीनी पेठें रहे बे. वली ( तस्मात् के० )
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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