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________________ (१५२) सकलस्यापि जगतो विश्वस्य उपरि नवेत् ॥ तदपि सत्त्वानां वधः हिंसा क्वापि अव्यक्षेत्रकालादौ सुकृतं पुण्यं न प्रसूते न जनयति । शेषं प्राग्वत् ॥२६॥ नाषाकाव्यः-श्रानानक बंद ॥जो पश्चिम रवि उगै, तिरै पाषान जल ॥ जों उलटें नुश्र लोक, होश शीतल अनल ॥ जो सुमेरु मगमगै, सि कहं लगनमल ॥ तबहूं हिंसा करत, न उपजै पुन्न फल ॥२६॥ ॥ मालिनीटतम् ॥ स कमलवनमग्नेर्वासरं नास्वदस्ता, दमृतमुरगवक्रात्साधुवादं विवादात्॥रुगपगममजीर्णाजीवितं कालकूटा, दनिलषतिवधाद्यःप्राणिनां धर्ममिवेत्॥॥ अर्थः-( यः के ) जे पुरुष, (प्राणिनां के०) जीवोना (वधात् के०) वध जे हिंसा तेथकी (धर्म के०) धर्मने (श्छेत् के० ) श्छे बे, अर्थात् माने बे, (सः के०) ते पुरुष, शुं श्छे ? तो के (अग्नेः के० ) अग्निथकी ( कमलवनं के० ) कमलोनां वनने (अनिलषति के०) अनिलाष करे बे. श्रर्थात् ते पुरुष, अग्निमांथी कमलवनने जोवानी श्वा करे . तथा ( जावदस्तात् के०) सूर्य अस्त थया
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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