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________________ (१५०) दूती । पुनः कथं जूता ? त्रिदिवौकसः निःश्रेणिः । त्रिदिवं स्वर्ग एव उकोगृहं तस्य सोपानपंक्तिः । पुनः कथंनूता ? मुक्तेः प्रियसखी वबाल वयस्या। पुनः कथंजूता ? कुगत्यर्गला कुगतेऽर्गतेः अर्गला छारपरिघ;। शति ज्ञात्वा जीवेषु कृपा क्रियतां ॥ २५॥ नाषाकाव्यः-सवैय्या इकतीसा ॥सुकृतकी खानी इंजपुरीकी निसानीजानी, पाप रज खंगनकों पौनरासि पेखिये ॥ नवपुःख पावक बुझायवेकों मेघमाला, कमला मिलायवेकों दूती ज्यौं विशेषियें॥मुगतिवधूसों प्रीति पालवेकों पाली सम, कुगतिक बार दिढ आगलसी देखियें॥ऐसी दयाकीजैं चित्त तिहुँ लोक प्रानीहित, और करतूति काहु लेखेमें न लेखियें ॥ ॥ शिखरिणीटत्तम् ॥ यदि ग्रावा तोये तरति तरणिर्यादयति, प्रतीच्यां सप्तार्चिर्यद नजति शैत्यं कथमपि ॥ यदि दमापीठं स्याउपरि सकलस्याऽ पि जगतः, प्रसूते सत्त्वानां तदपि न वधःक्वाऽपि सुकृतम् ॥२६॥ अर्थः-( यदि के० ) जो ( ग्रावा के० ) पाषाण ते ( तोये के ) जलने विषे ( तरति के०) तरे
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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