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(१४७) नि ॥४॥ इति चतुर्थ संघनक्ति प्रस्तावः ॥४॥
नाषाकाव्यः-वृत्त उपर प्रमाणे ॥ जाके नगत मुगति पद पावत, इंसादिक पद गनत न कोई॥ ज्यौं कृषि करत धान फल उपजत, सहज प्रयास घास जुस होई ॥ जाके गुन जस संपन कारन, सुरगुरु थकित होत मद खो ॥ सो सिरि संघ पुनीत बनारसि, पुरित हरन विचरत नुश्र लो॥२४॥ हवे हिंसाना निषेधेकरीने सर्व प्राणियोने
विषे खसमानतानुं ध्यान करो, ते कहेजे. क्रीडानूः सुकृतस्य कृतरजःसंहारवात्या नवो, दन्वन्नौर्व्यसनाग्निमेघपटली संकेतदूतीश्रियाम् ॥निःश्रेणिस्त्रिवौकसः प्रियसखी मुक्तेः कुगत्यर्गला, सत्त्वेषु क्रियतां कृपैव जवतु क्लेशैरशेषैः परैः॥ २५ ॥
अर्थः- हे नव्यप्राणीयो ! ( सत्त्वेषु के० ) जीवोने विषे ( कृपैव के० ) कृपा जे दया तेज ( कियतां के ) कराय. अर्थात् करो. वली ते कृपा (परैः के०) बीजा (अशेषैः के०) समस्त एवा (क्केशैः के० ) कायाना कष्ठं करीने पण ( जवतु के )