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________________ ( १३६) ( येन के०) जे संघनी संघातें ( समः के० ) समान, (अन्यः के ) बीजो कोश (नास्ति के ) नथी. वली ( यस्मै के०) जे संघने (तीर्थपतिः के) तीर्थकर पोतें (नमस्यति के० ) नमस्कार करे . एटले व्याख्या नावसरने विषे “नमोतिबस्स" एवं नणे . तथा (यस्मात् के०) जे संघथका (सता के) सङनोनुं ( शुनं के०) कल्याण (जायते के०) उत्पन्न थाय . ( च के) वली (यस्य के० ) जे संघनी ( स्फूर्तिः के०) महिमा ( परा के०) उत्कृष्ट वर्ते बे. वली ( यस्मिन् के) जे संघने विषे (गु. णाः के० ) गांजीर्य, धैर्य, औदार्यादिक मूलोत्तर गुणो ( वसंति के० ) वसे . श्रा श्लोकमां सात वि. जक्तिनो अनुक्रमें समावेश करेलो . ते जेम के आरंजमां ( यः) ए पद लश्ने (यस्मिन्) ए पद पर्यंत जोश खेबु, माटे ए प्रमाणे जाणीने हे नव्यप्राणीयो ! मनमां विवेक लावीने श्रीसंघनी पूजा जक्ति करवी ते पूजा नक्ति करनारने जे पुण्य । इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥२२॥ टीकाः-यःसंसारेति ॥ जो नव्याः! नवनिः सः श्री चतुर्विधसंघो अर्च्यतां पूज्यतां।सः कः? य संघ
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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