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________________ ( १३५ ) सुरलोक जूरि कल्पकुम, ज्यौं सुरवर अंबुज बन जान ॥ ज्यौं समुद्र पूरन जल मंमित, ज्यों ससि बवि समूह सुखदानि ॥ तैसें संग सकल गुन मंदिर, सेवहुं जाव जगति मन थानि ॥ २१ ॥ यः संसारनिरासलालसमतिर्मुक्तत्यर्थमुत्तिष्ठते, यं तीर्थ कथयंति पावनतया येनाऽस्ति नाऽन्यः समः ॥ यस्मै तीर्थपतिर्नमस्यति सतां यस्माद्दुनं जायते, स्फूर्त्तिर्यस्य परावसंति च गुणा यस्मिन्स संघोऽर्च्यतां ॥ २२ ॥ अर्थः- हे व्यजनो ! तमोयें ( सः के० ) ते चतुर्विध संघ ( श्रर्च्यतां के० ) पूजाय अर्थात् तमें चतुर्विध संघने पूजो, ते कदेवो संघ बे ? तो के (यः के० ) जे संघ, ( संसार के० ) संसार तेनो ( निरास के० ) निराकरण एटले त्याग तेने विषे ( बालसमतिः के० ) इछावाली बे बुद्धि जेनी एवो बतो ( मुक्त्यर्थं के० ) मुक्तिना साधन माटे ( उत्तिष्ठते के० ) सावधान थाय बे. तथा (यं के० ) जे संघने ( पावनतया के० ) पवित्रपणायें करीने ( तीर्थं के० ) तीर्थभूत एवाने ( कथयंति के० ) कहे बे. तथा
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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