SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १३०) ति के० ) दूर करे बे. वली ( उत्पथं के० ) उन्मार्ग जे अनाचार तेने ( उबापयति के0) निवारण करे बे. तथा ( मत्सरं के०) गुणी पुरुषोने विषे वेषजावने ( नित्ते के० ) नाश करे . वली (कुनयं के०) कुत्सित नय जे अन्याय, तेने ( उछिनत्ति के०) उद करे बे. वली (मिथ्यामति के०) कूटबुकि जे तेने ( मथ्नाति के० ) सर्वथा दूर करे . वली (वैराग्यं के०) वैराग्यने ( वितनोति के०) विस्तार करे . वली ( कृपां के०) दयाने (पुष्यति के०) पोषण करे . ( च के०) वली (तृष्णां के०) स्पृ. हा एटले लोजने (मुष्णाति के०) टाले . अर्थात् जेणे जिनमत आराधन कयु, तेणें पूर्वोक्त सर्व वानां कर्यां, एम जाणवू.ए प्रकारे जाणीने श्रीजिनमत जे जिनप्रणीत सिद्धांत तेनुं श्राराधन करवू. श्रा राधन करनारने जे पुण्य थाय।इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥२०॥ एत्रीजो जिनमत प्रक्रम थयो ॥३॥ टीकाः-धर्ममिति ॥ कृती पंमितः जैनं मतं जैनेंजमतं श्रीजिनशासनं जिनोक्तप्रवचनं अर्चति पूजयति । पुन; प्रथयति विस्तारयति । पुनायति चिंतयति । पुनः अधीते पठति । तत् धर्म जागर
SR No.022132
Book TitleSindur Prakar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages390
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy