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________________ २०६ ] प्रमादपरिहार कुलकम् अर्थ - अरे जीव ! तुमने मनुष्यपणा में भी रोग, शोक, और वियोगादि महादुःखो प्रमाद द्वारा अनन्तीवार अनुभवे है ।। १५ ।। कसायविसयाईया, भयाईणि सुरत्तो । पत्ते पत्ताईं दुक्खाई, पमाएणं श्रांतसो ॥ १६ ॥ अर्थ - - देवपणा में कषाय से, विषय से भयादिक प्राप्त होने पर भी तुमने अनन्तीवार दुःखों को प्राप्त किया है || १६ जं संसारे महादुक्खं, जं मुक्खे सुक्खमक्खयं । पार्वति पाणिणो तत्थ, पमाया अप्पमायो ||१७|| अर्थ संसार में जो प्राणी महादुःख और मोक्ष में जो 0 प्राणी अक्षय सुख प्राप्त करता है वह प्रमाद से और अप्रमाद से ही प्राप्त करता है । अर्थात् प्रमाद से दुःख और अप्रमाद से सुख प्राप्त करता है ।। १७ ।। पत्तेवि सुद्धसम्पत्ते, सत्ता सुत्तनिवत्तया । उवउत्ता जं न मग्गंमि हा पमात्र दुरंतो ॥ १८ ॥ अर्थ- शुद्ध सम्यक्त्व- समकित प्राप्त होने पर भी श्रुत के निर्वतक - प्रवर्तक ऐसे जीवों भी जो मार्ग में उपयुक्त नहीं
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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