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________________ प्रमादपरिहार कुलकन् [ २०५ सग्गापवग्ग मग्गमि, लग्गं वि जिण सासणे । सग्गापवग्गमग्गंमि, पडिया हा पमाएणं, संसारे सेणियाइया || १२ || अर्थ - जिनशासन ( जैनशासन ) में स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) के मार्ग में लगे हुए भी प्रमाद द्वारा श्रेणिक आदि संसार में प्रतिपात पाये हुए है, वह खेद की बात है || १२ || सोढाई तिक्ख (व्व) दुक्खाई, सारीर माणसाणि य । रे जीव ! नरए घोरे, पमाणं तसो ||१३|| अर्थ-रे जीव ! तुमने शारीरिक और मानसिक तीक्ष्ण ( तीव्र ) दुःख प्रमाद द्वारा अनंतीवार घोर नरक में सहन किये हैं ।। १३ ।। दुक्खागलक्खाई, छुहातन्हाइयाणि य । पत्ताणि तिरियतेवि, पमाएणं श्रणंतसो ॥ १४ ॥ अर्थ- - [अरे जीव ! ] तुमने तियंचपणा में भी क्षुधा - तृषादिक अनेक लक्ष दुःखो अनंतीवार प्रमाद द्वारा प्राप्त किये हैं || १४ || रोग- सोग-वियोगाई, रे जीव मणुयत्त । अणुभूयं महादुक्खं, पमाणं तसो ||१५||
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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