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________________ २०४ ] प्रमादपरिहार कुलकम् वरं महाविसं भुतं, वरं अग्गीपवेसेणं । वरं सत्तूहि संवासो, वरं सप्पेहि कालियं ॥१॥ वा धम्ममि पमायो जं, एगमुच्चु य विसाइणा । पमाएणं गणंताणि, जम्माणि मरणाणि य॥१०॥ अर्थ- महाविष खाना अच्छा, अन्नि में प्रवेश करना अच्छा, शत्रु के साथ रहना--निवास करना अच्छा और सर्पदंश से कालधर्म याने मृत्यु पाना अच्छा, किन्तु प्रमाद करना अच्छा नहीं । कारण कि--विषयादिक (झेर आदि) के प्रयोग द्वारा तो एक बार मृत्यु होती है, लेकिन प्रमाद द्वारा तो अनंतान्त जन्म-मरण करना पड़ता है ॥ ६-१० ।। चउदसपुब्बी श्रहारगा य मणनाणवीयरागावि । हुँति पमायपरवसा, तयणंतरमेव चउगइया ॥११॥ अर्थ-चौदह पूर्वी, आहारक शरीर की लब्धि वाले, मनः पर्यवज्ञानी और वीतराग (ग्यारहमें गुणस्थान पर पहुंचे हुये) ये सब प्रमाद के परवशपणा से तदनंतर चारों गति में परिभ्रमण- गमन करते हैं ।। ११ ।।
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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