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________________ प्रमादपरिहार कुलकम् [ २०७ रहते हैं, वे हा, इति खेदे ! दुरंत ऐसे प्रमाद का ही फल है । (ऐसे दुरंत प्रमाद को धिक्कार हो)॥१८ ।। नाणं पठति पाठिति, नाणासस्थविसारया। भुल्लंति ते पुणो मग्गं, हा पमायो दुरंतो॥११॥ ___ अर्थ- नाना प्रकार के शास्त्र के विशारद ऐसे पंडितों अन्य को पढ़ाने वाले और स्वयं पढने वाले भी मार्ग को भूल जाते हैं, वह दुरंत ऐसे प्रमाद का ही फल है ॥ १९ ।। अन्नेसिं दिति संबोहं, निस्संदेहं दयालुया। सयं मोहहया तहवि, पमाएणं अणंतसो ॥२०॥ ___ अर्थ--दयालु ऐसे मनुष्यों दूसरे को निःसंदेह ऐसे सम्बोधने याने उपदेश को देते हैं, तो भी स्वयं अनन्तीवार प्रमाद द्वारा गिरते हैं । ( इसलिये ऐसे प्रमाद को धिक्कार हो) ॥ २० ॥ पंचसयाण मज्झमि, खंदगायरिश्रो तहा । कहं विराहो जाओ, पमाएणं श्रणंतसो ॥२१॥ अर्थ-पांचशे शिष्यो आराधक होने पर भी गुरु खंधक नामक आचार्य विराधक क्यों हुये ? (उसका कारण क्रोध
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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