SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४] इरियावहि कुलकम् इस प्रमाण से अपने अपने कर्म विपाक के अनुसार नई नई योनियों में चारों गतिओं में जीव भ्रमण कर रहा है। उन सबको मैं मस्तक नत हाथ जोड़ कर अनेकानेक वार 'मिच्छामि दुकडं' देता हूँ ॥ १२ ॥ इश्र जिश्र विविहप्परि मिच्छामि दुक्कडि, करिहि जि भविश्र सुठठुमणा । ति छिदिय भवदुहं पामिश्र सुरसुई, सिद्धि नयरिसुहं लहइ घणं ॥१३॥ इस प्रकार से विविध प्रकार के जीवों के प्रति जो भाविक शुद्ध मन वचन और काया से "मिच्छामि दुक्कडं" करता है, वह संसार के दुःख काटकर बीच में देवों के सुखों को प्राप्त कर अन्तिम में मोक्ष का अनन्त सुख प्राप्त करता है ॥१३॥ नोट:-अन्य ग्रन्थों में ये ३०४०२० को छ साक्षी से गुणा करने पर १८३४१२० प्रकार से भी 'मिच्छामि दुक्कडं' होता है ऐसा निर्देश है। ॥ इति श्री इरियावहि कुलकस्य हिन्दी सरलार्थः समाप्तः ॥
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy