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१५. ]
खामणा कुलकम्
घायण चुन्नमाइ,
परोप्परं जं कयाइं दुक्खाई। कम्मवसरण नरए,
तं पि य तिविहेण खामेमि ॥३॥ कर्म के वशीभूत मैंने नरक में दूसरे नारकियों के साथ घात प्रतिघात दर्द, मारना आदि परस्पर वेदना रूप जो भी दुःख दिया हो उसके लिये मैं उनसे विविध क्षमा मांगता हूँ-खमाता हूं ॥३॥ निदयपरमाहम्मिश्र
रूवेणं बहुविहाई दुक्खाई। जीवाणं जणियाई, मूढेणं तं पि खामेमि
॥४॥ निर्दय परमाधामीदेव रूप में उत्पन्न होकर मूढ रूप में मैने नरक के जीवों को काटना कोल्हू में पीसना, अग्नि में जलाना, तप्त शीशा पिलाना, शकटि में जोतना, इत्यादि दुःख दिये हैं उन सबके लिये मैं उनसे क्षमा मांगता हूँ ॥ ४ ॥
में