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________________ खामणा कुलकम् हा ! हा ! तइया मूढो, नाम (हं) परस्स दुक्खाई ! करवत्तय यण-भेयणेहिं, केलीए जणियाई ॥५॥ हा ! हा ! मैं मूढ पर दुःख के दर्द को अनुभव नहीं कर सका, मात्र कुतूहल के लिये दूसरों के प्राण हर लिये, उन्हें काट डाला, धन का हरण किया अपने धन के लोभ से ब्याज, रकम आदि लेकर उनकी गरीब अवस्था का ध्यान नहीं दिया जैसे तैसे अपना धन कमाने की कोशिश की, कई तरह से उन्हें दुःख दिये ॥ ५ ॥ जं किं पि मए तइया, कलंकीभाव मागएण कयं । दुक्खं नेरइयाणं, [ १५१ - . तंपि यतिविहेण खामेमि ॥ ६ ॥ मैं नरक में उत्पन्न हुआ तब कलंकली भाव दुःख की अकुलाहट के वशीभूत होकर मैने नारकीय प्राणियों को दुःख दिया हो उस दुष्कृत्य तथा उससे पीडित प्राणियों से मन वचन तथा काया से क्षमा चाहता हूँ ॥ ६ ॥
SR No.022127
Book TitleKulak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1980
Total Pages290
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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