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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [अष्टमोऽधिकारः, भावनां प्रशमसुखमेव पुनः स्पष्टयतिप्रशम सुखका पुनः खुलासा करते हैं:
संत्यज्य लोकचिन्तामात्मपरिज्ञानचिन्तनेऽभिरतः।
जितरोषलोभमदनः सुखमास्ते निर्बरः साधु ः॥ १२९ ॥
टीका-लोकः स्वजनः परिजनश्च, तद्विषया चिन्ता दारिद्यदौर्भाग्यादिलक्षणा, अकृतपुण्यानाञ्च परलोके दुर्गतिप्राप्तिलक्षणा, ता, परित्यज्य विहाय, आत्मनःपरिज्ञानम्-अनादौ संसारेऽयमात्मा शारीराणि मानसानि दुःग्वान्यनुभवन्न तृप्तःकामभोगसुखेषु कथमपि मनुष्यजन्मासादितवान् बोधिञ्च, तदधुना यथा संसारे बहुदुःसंकटे न भ्रमति तथा प्रयत्नः कार्यों मया' इति आत्मपरिज्ञानचिन्तन एवाभिरतः परकार्यविमुखः । जिताः परिभूता रोषलोभमदनादयो येन* रोषग्रहणाद् द्वेषः, लोभग्रहणाद्रागः, मदनग्रहणात् पुरुषवेदादिः । एतजयाच सुखमास्ते-स्वस्थस्तिष्ठत्युपद्रवरहितः । ज्वरो रोगविशेषः, तेन ग्रस्तः परितापशिशिरलक्षणेन रतिमविन्दन दुःखमास्ते । स एवंविधो निर्गतोऽपेतो ज्वरो यस्मात् स निवरः । ज्वर इव ज्वरो रोषलोभमदनाख्यः । मोक्षसाधनाभ्युद्यतः साधुरिति । १२९ ॥
अर्थ-स्वजन और परजनकी चिन्ताको छोड़कर आत्माके ज्ञानके चिन्तनमें लवलीन हुआ और राग द्वेष और कामको जीतनेवाला, अतएव नीरोग हुआ साधु आनन्दपूर्वक रहता है।
भावार्थ-अपने कुटुम्बियों और दूसरे लोगोंको लोक कहते हैं । उनकी दरिद्रता, अभागापना, पुण्य न करनेपर परलोकमें दुर्गतिकी प्राप्ति, इत्यादि बातोंका विचार करना लोक-चिन्ता है। साधु इस चिन्तासे दूर रहता है । तथा सर्वदा यह विचार करता रहता है कि-' इस संसारमें शारीरिक
और मानसिक दुःखोंको भोगते हुए और काम भोगसे कभी तृप्त न होते हुए इस आत्माने किसी तरह यह मनुष्य-जन्म और ज्ञान प्राप्त किया है । अतः अब मुझे ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे दुःखोंसे भरे हुए इस संसारमें पुनः भ्रमण न करना पड़े। तथा राग-द्वेष और कामको जीत लेनेके कारण वह साधु रोगरहित हो जाता है, क्योंकि रागादिक ज्वरादिक रोगोंके समान ही दुःखदायी हैं । अतः संसारके लोगोंकी चिन्ता छोड़कर आत्माका चिन्तन करनेवाला वीतरागी साधु सुखपूर्वक निश्चिन्त रहता है।
___'संत्यज्य लोकचिन्ताम्' इत्युक्तम् । तत्कथं परित्यक्तलोकचिन्तस्य भरणपोषणादिवतिरात्मनः स्यात् ? ' इत्याह
____ऊपर लोककी चिन्ता छोड़नेका निर्देश किया है। अतः लोककी चिन्ता छोड़कर साधु अपना भरण-पोषण कैसे करेगा ? इसका समाधान करते हैं।
या चेह लोकवार्ता शरीरवार्ता तपस्विनां या च ।
सद्धर्मचरणवार्तानिमित्तकं तवयमपीष्टम् ॥ १३० ॥ १-निर्जरः प०, फ०।