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________________ कारिका १२७-१२८ ] प्रशमरतिप्रकरणम् नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥ १२८ ॥ टीका-राजराजः-चक्रवर्ती वासुदेवादिर्वा । पूर्व सकलभरतक्षेत्राधिपतिः, उत्तरोऽर्धभरताधिपतिः। मनुष्यजन्मसुखस्य प्रकर्षवर्तिनावेतौ। चक्रवर्त्यर्द्धचक्रवर्तिनोरपि नास्ति तादृशं सुखं यादृशं प्रशमस्थितस्येति । तद्धि चक्रवादिसुखं शब्दादिसमृद्धिजनितम्, तस्य चानित्यत्वं प्राक प्रतिपादितम् । न चैकान्तेन सुखहेतुत्वं शब्दादीनां विपरिणतिधर्मत्वात्। देवेन्द्रस्य सुखं प्रकृष्टं स्यादिति, तदपि चोपरितनेन्द्रसुखप्रकर्षदर्शनात्तदाकारिणः च्युतिचिन्तनाच्च दुःखव्यतिकीर्णमेव । अथवा देवराजः सर्वदेवोत्तमत्वादनुत्तरविमानवासी तस्यापि, यत्सुखं तदपि स्थितिक्षयं मनुष्योषिदुदरगर्तनिमज्जनं च दुःखमनुचिन्तयतस्तस्यापि न तादृक् सुखमस्ति दुःखलेशांकलङ्कितं यदिहैव सुखं साधोर्मनुष्यजन्मनि प्रशमस्थितस्य विनिवृत्तसकलाङ्कस्यात्महितगवेषिणो विशिष्ट ज्ञानसमन्वितस्य लोकव्यापारहितस्य। लोकव्यापारः कृण्यादिप्रवृत्तिकामभोगसाधनोपादित्सा । एवंविधेन व्यापारेण रहितस्य प्रशमसुख एव व्यवस्थापितचेतोवृत्तेर्यत्सुखं न तद् राजराजे न देवराजे इति ॥१२८॥ अर्थ–सांसारिक झंझटोंसे रहित साधुको इसी जन्ममें जो सुख मिलता है, वह सुख न तो चक्रवर्ती और अर्धचक्रोको ही सुलभ है और न देवराज इन्द्रको ही सुलभ है। भावार्थ-चक्रवर्ती अथवा वसुदेव वगैरह अर्धचक्री राजाओं के राजा कहे जाते हैं। चक्रवती समस्त भरतक्षेत्रका स्वामी होता है । ये दोनों ही पद मनुष्य पर्यायमें सबसे ऊँचे होते हैं । किन्तु इन्हें भी वह मुख नहीं होता जो विरक्त साधुको होता है। क्योंकि चक्रवर्ती वगैरहका सुख सांसारिक विषयों और वैभवसे उत्पन्न होता है, अतः वह अनित्य है । यह बात पहले बतला आये हैं कि विषय सर्वथा सुखके देनेवाले नहीं हैं, क्यों वे स्थायी नहीं होते हैं। देव-पर्यायमें इन्द्रका पद सबसे उत्कृष्ट है; किन्तु इन्द्रको भी अपनेसे ऊपरके इन्द्रोंको देखकर उसकी लालसा सताती रहती है और मरणकाल समीप आजानेपर वहाँसे च्युत होनेकी चिन्ता सताने लगती है। अतः उनका मुख उत्कृष्ट होनेपर भी दुःखसे मिला हुआ है । अथवा सर्व देवोंमें उत्तम होनेके कारण अनुत्तरवासी देवोंको देवराज कह सकते हैं। देवायुके विनाश और मनुष्य योनिमें पुनः जन्म लेनेके दुःखके विचार करनेपर उनका सुख भी दुःखसे मिला हुआ ही प्रतीत हो जाता है। अतः वैराग्यमें मग्न समस्त इच्छाओंसे रहित आत्म-हितको खोजनेवाले विशिष्ट ज्ञानी और सांसारिक प्रवृत्तियोंसे दूर रहनेवाले साधुको इसी जम्ममें जो सुख है, वह मुख न तो राजाओंके राजाको प्राप्त है और न देवों के राजाको प्राप्त है। १-चक्रवर्तिनोरपि-फ०, ब० । वासुदेवचक्रवर्तिनोरपि-मु०। २-शक-फ०, ब०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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