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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [अष्टमोऽधिकारः, भावना ___ अर्थ-जिसने वेद और कषायोंको शान्त कर दिया है, हास्य, रति, अरति और शोकमें जो स्वस्थ रहता है, तथा भय और निन्दासे जो पराभूत नहीं होता, उसे जो मुख होता है, वह सुख दूसरों को कैसे प्राप्त हो सकता है ? भावार्थ-वेदके उदयसे पुरुष स्त्रीकी अभिलाषा करता है, स्त्री पुरुषकी अभिलाषा करती है और नपुंसक दोनोंकी अभिलाषा करता है । उनके न मिलनेपर दुःखी होता है । किन्तु जिसका वेद शान्त हो जाता है, उसे वह दुःख नहीं होता। इसी प्रकार क्रोधरूपी आगमें जलता हुआ प्राणी भी दुःखी ही होता है । किन्तु जिसकी कषाय शान्त हो जाती है, उसे वह दुःख नहीं होता। इसी तरह हास्य वगैरहको भी दुःखका कारण जानना चाहिए । हँसीके कारण उपस्थित होनेपर भी जो हास्य नहीं करता, प्रीतिके कारण उपस्थित होनेपर भी किसीसे प्रीति नहीं करता, उद्वेगके कारण उपस्थित होनेपर भी उद्विग्न नहीं होता और शोकके कारण उपस्थित होनेपर भी शोक नहीं करता । जिसे न* किसी प्रकारका भय सताता है और न जो निन्दाके वशमें होता है, उस समदर्शी मनुष्यको जो सुख होता है, वह सुख रागी जनोंको कैसे प्राप्त हो सकता है ? । पुनः प्रशमसुखस्यैवोत्कर्ष विषयसुखानिदर्शयन्नाहःफिर भी विषय-सुखसे प्रशमजन्य सुखको उत्कृष्ट बतलाते हैं : सम्यग्दृष्टि नी ध्यानतपोबलयुतोऽप्यनुपशान्तः । तं लभते न गुणं यं प्रशमगुणमुपाश्रितो लभते ॥ १२७ ॥ टीका-शङ्कादिदोषरहितः सम्यग्दर्शनसम्पन्नः, यथासंभवं च मत्यादिज्ञानेन युक्तः, शुभध्यानबलेन च युक्तोऽपि केवलमनुपशान्तः-अशामितवेदकषायोऽनुपशान्तः तद्गणं न लभते न चानोति प्रशमगुखमुपाश्रितो यं गुणं लभते ज्ञानचरित्रोपचयलक्षणं निरुत्सुकत्वगुणं च । न चानुपशान्तः तं गुणमवानोतीति । तस्मात् प्रशमसुखायैव यतितव्यमिति ॥ १२७ ॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी और ध्यान तथा तपोबल से युक्त साधु भी यदि अशान्त न हो तो उस गुणको प्राप्त नहीं कर सकता, जो गुण प्रशम गुणसे युक्त साधुको प्राप्त होता है। भावार्थ-कोई साधु शंका आदि दोषोंसे रहित सभ्यग्दर्शन, यथायोग्य मति वगैरह ज्ञान, और ध्यानसे युक्त हो और बड़ा भारी तपस्वी भी हो; किन्तु यदि उसके काम क्रोधादिक शान्त नहीं हुए हैं तो उसे उत्कृष्ट ज्ञान, उत्कृष्ट चारित्र वगैरह उन गुणोंकी प्राप्ति नहीं हो सकती, जो गुण काम क्रोधादिके जीतनेवाले साधुको सहज हीमें प्राप्त हो जाते हैं। अतः प्रशम मुखकी प्राप्तिके लिए ही प्रयत्न करना चाहिए। भूयोऽपि प्रशमसुखोत्कर्षख्यापनायाहःफिर भी प्रशम सुखकी उत्कृष्टता बतलाते हैं :
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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