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________________ कारिका १२९-१३०-१३१ ] प्रशमरतिप्रकरणम् टीका-वर्तनं वृत्तिः भरणपोषणादिका वृत्तिरेवंप्रकारा यस्यांविद्यते सा वार्ता कृषि. पशुपाल्यवाणिज्यादिः लोकस्य वार्ता, तस्यां चिन्तनमेतावदेव लोकवार्तायामुपस्थिते भिक्षाकाले स्थायमेवोपसाधितेऽशनादिषु हिण्डमानोऽकृताकारिताननुमतमशनादि यल्लभ्यते लोकवार्ता । यतस्तच्छरीरवार्तायाः कारणं भवति, साधूनां शरीरवृत्तेः शरीरस्थितेनिमित्तं भवति तपस्विनाम्, तत्र पेयं लोकवार्ता या च तपस्विनां शरीरसंधारणवार्ता. एतद्वार्ताद्वयमपि सद्धर्मचरणवार्ता निमित्तकमिष्टम् । सद्धर्मो दशलक्षणकः क्षमादिः । चरणं मूलोत्तरगुणकलापः । सद्धर्मचरणवृत्तिः सद्धर्मचरणवार्ता । सद्धर्मचरणवृत्तेरनन्तरं कारणं शरीरसंधारणम्, शरीरसंधारणवृत्तेश्च लोकवार्ताकारणम् । पारम्पर्येण सद्धर्मचरणवार्ताया लोकवार्ता कारणमिति ॥ १३० ॥ अर्थ-जो लोक-वार्ता और शरीर-वार्ता साधुओंके समीचीन धर्म और चारित्रकी प्रवृत्तिमें कारण है, वे दोनों इष्ट हैं। भावार्थ-वार्ता' शब्दके दो अर्थ होते हैं—एक जीविका और दूसरा बात । खेती पशु-पालन व्यापार वगैरह लोक-वार्ता कहे जाते हैं । भिक्षाके योग्य कालमें शरीरकी स्थिति के लिए भोजन वगैरहके निमित्त भ्रमण करता हुआ साधु कृत, कारित, और अनुमोदनासे रहित भोजन वगैरह प्राप्त करता है, वह लोक-वार्ता है । यह लोक-वार्ता स धुओंके शरीरकी स्थितिका कारण होती है । और ये दोनों ही वार्ताएँ उत्तम क्षमादिरूप धर्म और मूलगुण तथा, उत्तरमूलगुणरूप चारित्रकी प्रवृत्तिो कारण होती हैं; क्योंकि भोजनके विना शरीर नहीं रह सकता और शरीरकी स्थितिके विना धर्माचरण नहीं रह सकता । अत: धर्माचरणमें शरीर-स्थिति कारण है और शरीरकी स्थितिका कारण लोक-वार्ता है । अतः परम्परासे लोक-वार्ता भी धर्माचरणकी प्रवृत्तिमें कारण है। इसलिए ये दोनों ही इष्ट हैं। किन्तु इतना ध्यान रखना चाहिए कि शरीरको चिन्ता उतनी ही पर्याप्त है जितनी धर्माचरणके लिए आवश्यक हो और भोजनकी वार्ता भी उतनी ही पर्याप्त है, जितनी शरीरको बनाये रखने के लिए आवश्यक हो । अपि च लोकवान्वेिषणे प्रयोजनमिदमपरम्लोक-वार्ताको रखने में एक दूसरा कारण भी बतलाते हैं : लोकः खल्वाधारः सर्वेषां ब्रमचारिणां यस्मात् । तस्मालोकविरुद्धं धर्मविरुद्धञ्च संत्याजम् ॥ १३१ ॥ टीका-लोकः जनपदः । खलु शब्दोऽवधारणे । लोक एवधाराः सर्वेषां ब्रह्मचारिणां यस्मात्-ब्रह्म संयमः सप्तदशभेदः, तद्योगात् संयमिनस्तेषां सर्वेषामिति गच्छवासिनां गच्छ. निर्गतानाश्च । तस्माद् लोके यद्विरुद्धं जातमृतकसृतकसमूहनिराकृतादिगृहेषु भिक्षादिग्रहणमभोज्येषु च परिहार्यम् । तथा चान्यैरप्युक्तमुक्तम् १-रेवंविधा एवं प्रकारा-फ०, ब०। २-मुचिते-फ०, ब०।३-यलमते-प०। ४-रचार-फ०। साधार--फ.। ५-धर्म चा-१०। प्र०१२
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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