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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [अष्टमोऽधिकारः, भावना भावार्थ-भोगोंसे उत्पन्न होनेवाला सुख अनित्य होता है, रात-दिन चोरोंका, कुटुम्बियोंका, आगका और राजाका भय लगा रहता है । तथा शब्दादिक विषयोंके प्राप्त होनेपर सुख होता है, अन्यथा नहीं होता । अतः उसकी वांछा न करके राग और द्वेषके त्यागसे उत्पन्न होनेवाले समतारूपी सुखको प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । यह सुख नित्य है। इसमें किसी प्रकारका भय नहीं है और न यह परके अधीन है।
'तच सुलभमेव ' इति दर्शततिवह सुख सुलभ है, यह बतलाते हैं :
यावत्स्वविषयलिप्सोरक्षसमूहस्य चेष्टयते तुष्टौ ।
तावत्तस्यैव जये वरतरमशठं कृतो यत्नः ॥ १२३ ॥ टीका-अक्षसमूहस्य-इन्द्रियग्रामस्य, स्वविषयलिप्सोः शब्दादिविषयाभिलाषिणः शब्दादीन् स्वविषयान् लब्धुमिच्छतः, तुष्टौ प्रिये कर्तव्ये, यावच्चेष्टयते प्रयासः क्रियते। तावत्तस्यैव जये-अक्षसमूहस्याभिभवे निग्रहे नियमने, वरतरं शोभनतरं, बहुगुणमशठं मायारहितमृजुना चितन यत्नः कृतः । 'वरतरमशठम्' इति क्रियाविशेषणम् । यत्र तत् क्रियते तद् वरतरमशठञ्चेति । इतश्च प्रशमसुखं सुलभम् ॥ १२३ ॥
___ अर्थ-अपने विषयोंकी इच्छुक इन्द्रियोंकी संतुष्टि के लिए जितना प्रयत्न किया जाता है, उनके जीतनेमें छल-कपट रहित उतना ही प्रयत्न करना श्रेष्ठ है ।
भावार्थ-इन्द्रियाँ सदा ही अपने विषयोंको चाहती हैं। उन्हें संतुष्ट करने के लिए मनुष्य जितना प्रयत्न करता है, उतना प्रयत्न यदि सरल चित्तसे इन्द्रियोंके दमन करनेमें किया जाये तो उससे प्रशम सुखकी प्राप्ति सहज ही में हो सकती है ।
तथायत्सर्वविषयकाडोद्भवं सुखं प्राप्यते सरागेण ।
तदनन्तकोटिगुणितं मुधैव लभते विगतरागः ॥ १२४ ॥ टीका-यत्सुखं सकलविषयसामग्यामाकाङ्कितायाम् , उद्धृतम्-उपजातम् , सरागेण रागवता भूयासायासेन प्राप्यते । तदेव सुखमनन्ताभिः कोटिभिर्गुणितम् अभ्यस्तं मुधैव विना मूल्येन विना चायासेन विगतरागः प्रशमसुखमवाप्नोतीति ॥ १२४ ॥
अर्थ-रागी मनुष्य सब विषयोंकी प्राप्तिसे उत्पन्न हुए जिस सुखको प्राप्त करता है, वीतरागी मनुष्य उससे अनन्त कोटिगुने सुखको सहज ही में प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ-रागी मनुष्यको सांसारिक सुख पानेके लिए दुनियाभरके विषयोंकी इच्छा रहती है। उनकी प्राप्तिके लिए दिन-रात परिश्रम करता है, तब कही थोड़ासा सुख मिलता है, किन्तु वीतरागी