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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [सप्तमोऽधिकारः, आचारः नानाविधरूपदर्शनेन रागद्वेषपरित्यागः कार्यः। सर्वत्र क्रियाशब्देनाभिसम्बन्धः- स्थानक्रिया निषद्याक्रिया' इत्यादि । षष्ठे परक्रियानिषेधः-प्रयत्नवतस्तपसि प्रवृत्तस्य निष्प्रतिकर्मशरीरस्य परो यदुपकरोति संस्करोति तदयुक्तम् । सप्तमाध्ययनेऽन्योन्यक्रिया परस्परक्रिया साऽपि निष्प्रतिकर्मवपुषो न युज्यत इति । तृतीयचूला भावना । तत्राप्रशस्तभावनां विहाय प्रशस्तभावनादर्शनज्ञानचरणतपोवैराग्यादिका भाव्या एकैकमहावतभावनाश्च पञ्च पञ्चमहाव्रतदाढाथमिति । 'विमुक्तता सर्वसङ्गेभ्यः' इति चतुर्थचूलिकायां विमुक्ताध्ययने कर्मणो विमुक्तिरशेषतो देशतो वापि चिन्त्यते-यावन्तः केचित् सङ्गास्तेभ्यो विमुक्तिरिति । निशीथाध्ययनं पञ्चमी चूला, चतसृषु चूलासु योऽतिचारस्तद्विशुद्ध्यर्थं प्रायश्चित्तदानं तत्रेति ॥ ११७ ।।
____ अर्थ-स्थानक्रिया, निषद्याक्रिया, व्युत्सर्गक्रिया, शब्द क्रिया, रूपक्रिया, परक्रिया, पाँच महावतोंमें दृढ़ता और समस्त परिग्रहका त्याग–ये नौ अध्ययनों के नाम हैं।
भावार्थ-पहले अध्ययनमें कायोत्सर्गके योग्य स्थानका वर्णन है । दूसरे अध्ययनमें स्वाध्याय करनेके योग्य स्थानका वर्णन है। तीसरे अध्ययनमें मल-मूत्रके त्यागने योग्य स्थानका वर्णन है। चौथे अध्ययनमें सुनाई पड़नेवाले शब्दोंमें राग और द्वेषके त्यागनेका वर्णन है । पाँचवें अध्ययनमें दिखलाई पड़नेवाले अनेक प्रकारके रूपोंमें राग और द्वेषके त्यागनेका वर्णन है । छठे अध्ययनमें परक्रियाका निषेध किया है । अर्थात् तपस्यामें लगे हुए साधुको गृहस्थ वगैरहके द्वारा की गई सेवा-शुश्रूषाकी इच्छा करना युक्त नहीं है । सातवें अध्ययन में साधुओंके लिए परस्परमें एक दूसरेकी परिचर्या करनेको अयुक्त कहा है । द्वितीय चूलिकामें ये सात अध्ययन हैं। तीसरी चूलिकाका नाम भावना है। साधुको अशुभ भावनाओं को छोड़कर दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप वगैरहकी शुभ भावनाएँ भानी चाहिए । एक एक महाव्रतकी पाँच पाँच भावनाएँ होती हैं। उनके भानेसे पाँच महाव्रत दृढ़ होते हैं । चौथी चूलिका विमुक्ताध्ययनमें एकदेश अथवा सर्वदेशसे कर्मोंसे मुक्त होनेका विचार किया गय है । अर्थात् जो कुछ परिग्रह है, उससे मुक्त होनेका उसमें वर्णन है । पाँचवीं चूलिकाका नाम निशीथाध्ययन है । उसमें चार चूलिकाओंमें जो अतीचार लग जाते हैं उनकी विशुद्धिके लिए प्रायश्चित्त देनेका वर्णन है।
साध्वाचारः खल्वयमष्टादशपदसहस्रपरिपठितः ।
सम्यगनुपाल्यमानो रागादीन मूलतो हन्ति ॥ ११८ ॥
टीका-एवमेषः साधूनामाचारः-खलुशब्दो ऽवधारणे-नवब्रह्मचर्यात्मकः सुप्तिङन्तपदगणनयाऽष्टादशपदसहस्रात्मकः परिपठितः । यत्र चार्थोपलब्धिस्तत्पदमिति । सम्यगयथोक्तेन विधिना ग्रहणधारणानुष्ठानव्याख्याभिरनुपाल्यमानः-अभ्यस्यमानो रागद्वेषमोहान् समूलका कषतीति । अयश्चापरो गुणः प्राप्यते ॥ ११८॥
१-याभिस, फ०। २-स्यानि-फ०, ब०, । ३-चैयावृत्यादि-1०। ४-व्या, प०। ५-यने प-फ., ब०। ६-केवली पर्यन्त साधु-समुदाय एकदेशसे कर्ममुक्त कहलाते हैं । सिद्धपरमेष्ठी सर्व कर्ममुक्त हैं। ७-नां समा-फब०। ८-ब्दो वाक्यालङ्कारार्थो नव-१०। ९-चर्याध्यबनात्म-प।