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कारिका ११६-११७] प्रशमरतिप्रकरणम् वाच्यमिति । वस्त्रैषणाध्ययने मलोत्तरगुणशुद्धं लक्षणयुक्तं वासः समादेयमल्पपरिकर्मादि । पात्रैषणायामपि चोद्मादिविशुद्धपात्रग्रहणमलोन्वादि यथोक्तमादेयम् । अवग्रहप्रतिमाध्ययनेऽ वग्रहो देवेन्द्रराजगृहपतिशय्यातरसाधर्मिकाणां पञ्चों । सर्वथा सर्वतः परिमितोऽवग्रहो याच्यो यत्र भाजनक्षालन प्रवणपुरीपोत्सर्गस्वाध्यायस्थानयुक्तोऽवग्रहो योग्यः । इति प्रथमचूला सपाध्ययनपरिमाणेयम् ॥ ११६ ॥
अर्थ-विधिपूर्वक भिक्षाग्रहण, स्त्री, पशु, और पण्डक (नपुंसक )से रहित शय्या, ईर्याशुद्धि, भाषाशुद्धि, वस्त्र भूषण शुद्धि, और अवग्रहशुद्धि, ये प्रथम चूलिकाके सात अध्ययनोंके नाम हैं।
भावार्थ-पिण्डैषणा नामके अध्ययनमें उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषसे रहित भिक्षा ग्रहण करनेका विधान है । दूसरे शय्यैषणा नामक अध्ययनमें स्त्री, पशु और पण्डक (नपुंसक ) से रहित स्थानमें ठहरनेका विधान है। ईर्याध्ययनमें कहा है कि जब साधु भिक्षा लेने वगैरहके लिए गमन करता है तो आगे एक युगमात्र (चार हाथ) पृथिवीको देखकर, त्रस और स्थावर जीवों की रक्षा करता हुआ धीरे-धीरे गमन करता है। भाषा अध्ययनमें अपने और दूसरोंके अविरुद्ध सोचकर बोलनेका विधान है । वस्त्रैषणा नामके अध्ययन में मूलगुण और उत्तरगुणोंकी शुद्धताके अनुरूप ऐसे वस्त्र लेने का विधान है, जिसमें कम आरम्भ हो। पात्रैषणा नामके अध्ययनमें भी उद्गामादि दोषोंसे रहित पात्र लेनेका कथन है। अवग्रह मिल्कियतको कहते हैं। उसके पाँच भेद हैं, लोकके मध्यमें सुमेरु पर्वतके नीचे स्थित आठ मध्य प्रदेशोंसे लेकर आधा दक्षिण माग देवेन्द्रकी मिल्कियत है । भरत वगैरह क्षेत्र चक्रवर्ती राजाकी मिल्कियत है । गाँव, कस (खेत), उद्यान, पहाड़, गुफा वगैरह उस स्थानके मालिक जागीरदारकी मिल्कियत है । जिस गृहस्थके घरमें ठहरना हो उस गृहस्थके घर वगैरह उस गृहस्थकी मिल्कियत है । और जिस स्थानमें समानधर्मी अन्य साधु वगैरह ठहरे हों, वह स्थान उन साधुओंकी मिल्कियत है । इन मालिकोंसे ठहरनेके लिए परिचित स्थानकी याचना करना चाहिए। वह स्थान इतना हो कि उसमें बर्तन धोने, मल-मूत्र त्यागने और स्वाध्याय वगैरह करने की सुविधायें हों।
सम्प्रति द्वितीयचूलासप्ताध्ययनानि सप्तकाभिधानान, तत्राधिकाराःअब सप्त सप्तकी द्वितीय चूलिकाके अधिकारोंको कहते है:
स्थाननिषद्याव्युत्सर्गशब्दरूपक्रियाः परान्योन्याः।
पञ्चमहाव्रतदाब्यं विमुक्तता सर्वसङ्केभ्यः ११७ ॥
टीका-प्रथमाध्ययने स्थान कायोत्सर्गाख्यं वर्ण्यते । द्वितीयाध्ययने निषधास्थान निविर्शनाख्यमाख्यायते । तृतीयाध्ययने उच्चारप्रस्रवणत्यागयोग्यप्रदेशप्ररूपण व्युत्सर्गस्थानमुक्तम् । चतुर्थाध्ययने शब्दाकारपरिणतद्रव्यग्रहणे सति रागद्वेषत्यागः । पञ्चमाध्ययने १-लाबकुदि प०। २-धा सर्वतः५०। ३-श्रवण-फा, ब.-स्त्रवण. मु०। ४-देविंद राय उग्गह, गिहवह सागरिय, साहम्मी॥ ३१६ ॥ आचा., २ श्रुत०,१ चू०। ५-त्रार्याधि-400६-निवेश-प०।