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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[सप्तमोऽधिकारः, आचार
क्षमा वगैरहके द्वारा क्रोध, मान, माया और लोभ कषायको जीतनेका विधान है । शीतोष्ण नामके तीसरे अध्ययनमें भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी वगैरह बाईस परीषहोंके जीतनेका कथन है। सम्यक्त्व नामके चौथे अध्ययनमें शंका आदि दोषोंसे रहित तत्वार्थका श्रद्धानरूप निश्चल सम्यग्दर्शनका वर्णन है । लोकसार नामक पाँचवें अध्ययनमें संसारसे उद्वेगका कथन है। क्योंकि जो हिंसा वगैरहमें लगा हुआ है, वह मुनि नहीं है । किन्तु जो हिंसा वगैरहमें अनेक दोष देखकर उनसे विरक्त हो जाता है तथा काम भोगसे विरक्त और अपरिग्रही होता है, वह मुनि है । लोकसारको देखनेवाला मुनि कुमार्ग छोड़कर लोकके सारको ग्रहण करता है । धूत नामके छठे अध्ययनमें कुटुम्बी, मित्र, स्त्री, पुत्र वगैरहसे निरपेक्ष रहनेका, उनके परित्यागका, ज्ञानावरणादिक कर्मोंके क्षय करनेके उपायका, श्रुतज्ञानके अनुसार आचरण करने का और शरीर तथा उपकरणोंके त्यागनेका वर्णन है । महापरिज्ञा नामके सातवें अध्ययनमें मूल और उत्तरगुणोंको भलीभाँति जानकर मन्त्र तन्त्र तथा आकाशगामी ऋद्धिके प्रयोग न करनेका विधान है । और प्रत्याख्यानपरिज्ञामें त्यागने योग्य वस्तुओंका त्याग करके विरक्त होकर ज्ञान, दर्शन और चरित्रमें सदा तत्पर रहनेका विधान है। इसे ही वैयावृत्यमें तत्पर कहा जाता है। विमोक्षयतना नामके आठवें अध्ययनमें श्रावकोंके एकदेश मोक्षका और साधुओंके सर्वदेश मोक्षका वर्णन है । अर्थात् श्रावकोंके एकदेशसे कर्मोंका क्षय होता है । अतः उनका एकदेशसे मोक्ष कहा जाता है और मुनियोंके समस्त कर्म छूट जाते हैं । अतः उनका सर्वदेशसे मोक्ष कहा जाता है । कर्मोंसे मुक्त होने ही का नाम मोक्ष है । भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी और पादपोपगमन मरणके साथ मोक्षका विस्तारसे वर्णन किया गया हैं । प्रधान होनेसे तपोनिधिका ग्रहण किया है । उपधानश्रुत नामक नौवें अव्ययनमें भगवान् वर्धमानस्वामीके तपका वर्णन है और स्त्रियोंके त्यागरूप ब्रह्मचर्यका विधान है । इस प्रकार नौ अध्ययनोंके आधारपर आचारके नौ भेद किये गये हैं।
सम्प्रति आचारोग्रेषु अध्ययननवकाधाकृष्टेषु विस्तरचितेष्वधिकारी वर्ण्यन्ते
अब अचारङ्गके नौ अध्ययनोंसे लेकर विस्तारपूर्वक रचे गये द्वितीय श्रुतस्कन्धकी प्रथम चूलिकाके अधिकारोंका वर्णन हैं:
विधिना भैक्ष्यग्रहणं स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिता शय्या।
ई भाषाम्बरभाजनैषणाग्रहाः शुद्धाः ॥ ११६ ॥
टीका-पिण्डैषणाध्ययने उद्गमोत्पादनैषणादोषवर्जितो भिक्षासमूहो ग्राह्यः। शय्या प्रतिश्रयः, तत्र स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिते स्थाने स्थातव्यम् 'मूलोत्तरगुणशुद्धा शय्या ग्राह्या' ईर्याध्ययने भिक्षाचंक्रमणादिक्रियाप्रवृत्तः शनै शनैः पुरस्ताद् युगमात्रनिरुद्धदृष्टिः स्थावराणि जङ्गमानि च सत्वानि परिक्षन् व्रजतीति। भाषाजाताध्ययने वाक्यमात्मपराविरोध्यालोच्य
१-सम्यज्ञानी मुनियोंकी सेवामें तत्पर रहना मी ज्ञान और चारित्रमें ही तत्पर रहना है, क्योंकि वे ज्ञानादिकके साधन हैं । २-राङ्गेषु मु०। ३-मण्यते-१०। ४-भिक्षणं प्र-प.। ५-क्षाग्रा-प०। ६-शनैः पु-फ.ब..।