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________________ कारिका १०९.११०-१११-११२ ] प्रशमरतिप्रकरणम् सर्वदा ही अनियत है; क्योंकि आयु प्रत्येक समयमें क्षय हो रही है। और यह बात हम अपने सामनेके मनुष्यों और तीर्थञ्चोंमें प्रत्यक्ष देखते हैं । तो भी आयुको अनित्य जानकर भी जो विषयोंमें फंसे हुए हैं; उन्हें मनुष्य नहीं समझना चाहिए । नासमझ होनेके कारण वे पशु ही हैं। विषयपरिणामनियमो मनोऽनुकूलविषयेष्वनुप्रेक्ष्यः। . द्विगुणोऽपि च नित्यमनुग्रहोऽनवद्यश्च संचिन्त्यः ॥ १११ ॥ टीका-मनोऽनुकूला ये विषया इष्टाः शब्दादयस्तेषां विषयाणां परिणामोऽनुप्रेक्ष्यः-चिन्तनीय आलोचनीयः । इष्टपरिणामाः सन्तोऽनिष्टपरिणामा भवन्ति, अनिष्टपरिणामाश्चाभीष्टपरिणामा भवन्ति, नावस्थितः कश्चित् परिणामोऽस्ति । एवञ्चानवस्थितपरिणामविषयविरतौ सत्यामनुग्रहो द्विगुणोऽनवद्यश्च संचिन्त्यः । अनुग्रहः-गुणयोगः, स च द्विगुणः । बहुगुण एव द्विगुणं उक्तः, द्विशब्दस्योपलक्षणत्वात्। अनवद्यश्चासौ पापबन्धाभावात् इत्यनुप्रेक्ष्यः॥११॥ अर्थ-मनके अनुकूल विषयोंमें विषयों के परिणामके नियमका बारम्बार चिन्तन करना चाहिए और सर्वदा निर्दोष तथा बहुगुणयुक्त लाभका विचार करना चाहिए । भावार्थ-मनको प्रिय लगनेवाले विषयोंके भावी परिणामका विचार करना चाहिए । अर्थात् अच्छे लगनेवाले विषय कालान्तरमें बुरे लगते हैं, और बुरे लगनेवाले विषय कालान्तरमें अच्छे लगने लगते हैं । उनका कोई परिणाम सर्वदा नहीं रहता। अतः अस्थिर परिणामवाले विषयोंसे विरक्ति होनेपर आत्माका बड़ा भारी दोष रहित कल्याण होता है । क्योंकि विषयोंसे विरक्ति होनेपर पापकर्मको बन्ध नहीं होता । अतः उस लाभका सर्वदा विचार करते रहना चाहिए। इति गुणदोषविपर्यासदर्शनाद्विषयमूर्छितो ह्यात्मा। भवपरिवर्तनभीरुभिराचारमवेक्ष्य परिरक्ष्यः ॥ १२ ॥ टीका-इति इत्थं गुणान् दोषरूपेण यः पश्यति दोषांश्च गुणरूपेण प्रेक्षते, विपर्यासदर्शनाद् वैपरीत्यं बुद्धयते । विषयेषु शब्दादिषु मूर्छितः-तन्मयतां गतो य आत्मा। भवः संसारः, तत्र परिवर्तनं नरकादिषु जन्ममरणप्रबन्धः, तस्माद् विभ्यद्भिः आचारमवेक्ष्य प्रथमाङ्गार्थमनुचिन्त्य परिरक्ष्यः परिपालनीय इति ॥ ११२॥ . अर्थ-इस प्रकार गुण और दोषमें विपरीत दर्शन होनेसे यह आत्मा विषयोंमें आसक्त हो रहा है। संसार-भ्रमणसे डरनेवाले भव्य जनोंको आचारका अनुशीलन करके उसकी रक्षा करनी चाहिए। भावार्थ-यह आत्मा गुणोंको दोषरूपसे देखता है और दोषोंको गुणरूपसे देखता है । इस विपरीत दर्शनसे विषयोंको सुखदायी समझकर यह उनमें लीन हो रहा है । जो भव्यजीव नरकादि गतियोंमें भ्रमण करनेसे डरते हैं, उन्हें आचाराङ्गके अर्थका अभ्यास करके अपनी आत्माकी रक्षा करनी चाहिए। १-गुण एव उ-फ० ब०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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