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________________ ७३ कारिका १०६-१०७-१०८ ] प्रशमरतिप्रकरणम् भावार्थ-प्रारम्भमें यह मनुष्य कुतूहलसे इन विषयोंको उत्सवोंकी तरह मानता है । अर्थात् जैसे किसी उत्सवकी सूचना मिलनेपर उससे आनन्द होता है वैसा ही आनन्द विषयोंकी प्राप्ति होनेसे पहले होता है । विषयोंके प्राप्त होनेपर श्रृंङ्गार, वेष, अलङ्कार, हास्य, प्रेम-कोप और संभोगके अन्तमें खुले हुए कामाङ्गोंको देखकर बड़ी ग्लानि होती है । नवोदाके चीत्कारको स्मरण करके उसपर दया आती है । एक दूसरेको नग्न देखकर लज्जा होती है । उस अवस्थामें गुरुजनोंके देख लेनेपर भय लगा रहता है । इस प्रकार अन्तमें ये विषय ग्लानि, करुणा, लज्जा और भय वगैरहको उत्पन्न करते हैं। मध्यमें मोहकी तीव्र वेदनाको उत्पन्न करते हैं और आरम्भमें कुतूहल और उत्सुकता पैदा करते हैं। ये कभी भी मनुष्यको स्वस्थ नहीं होने देते। अतः छोड़नेके योग्य हैं । 'ननु च उपभुज्यमानः सुखलेशेनोपभोक्तारमनुगृह्णन्तो विषया' इत्यधिकारे पठति विषय-भोगसे मनुष्यको योड़ा-बहुत मुख भी होता है, अतः विषय उपकारक हैं, इसका उत्तर देते हैं :-- यद्यपि निषेव्यमाणा मनसः परितुष्टिकारका विषया । किंपाकफलादनवद्भवन्ति पश्चादतिदुरन्ताः ॥ १०७ ॥ टीका-निषेव्यमाणा उपभुज्यमानाः क्षणमात्रं यद्यपि मनोहर्ष जनयन्ति तथापि पश्चाद् विपाककाले आपातरमणीया अपि सन्तः किंपाकफलभक्षणोपमाः किंपाकतरुफलानि हि रसनाग्रेणौलिह्यमानानि स्वादूनि सुरभीणि च परिणतिकाले परासुतया योजयन्ति । अतो दुरन्ताः 'दुःखान्ता' इत्यर्थः ॥ १०७॥ अर्थ--यद्यपि सेवन करते समय विषय मनको मुखकर लगते हैं, तथापि किंपाक वृक्षके फलके भक्षणके समान अन्तमें दुखःदायी होते हैं । भावार्थ-किंपाक वृक्षके फल खानेमें बड़े खादिष्ट और सुगन्धित होते हैं; किन्तु पेटमें पहुँचते ही जहरका काम करते हैं । विषयोंको मी ऐसा ही जानना चाहिए। तथाऽपरं निर्देशनमाहदूसरा उदाहरण देते हैं :-- यद्वच्छाकाष्टादशमन्नं बहुभक्ष्यपेयवत् स्वादु । विषसंयुक्तं भुक्तं विपाककाले विनाशयति ॥ १०८ ॥ टीका-शाकं तीमनमष्टादशं यस्य तद् शाकाष्टादशमन्नम् । बहुभक्ष्यं मोदकांदि, पेयं पानकविशेषः सीधुप्रसन्नादि वा, तत्पेयं यत्रास्त्यन्ने तत्पेयवदन्नम् । स्वादु-मधुरादिरसयुक्तं विषव्यतिमिश्रं भुक्तम्, विपाककाले परिणतिसमये यथा विनाशयति ॥ १०८ ॥ १-हृतो फ०, ब०। २-इत्याधिकारे ५०-फ०, ब० । ३-प्रेणोलिय-फ० ब०। ४-शयिन्नाइ-फ०, ब०।५-मोदकामलसारकादि, प०।६-दिसंयुक्तं, फ, ब०। ७-मये वि-फ०, ब०। प्र०१०
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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