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कारिका १०३-१०४-१०५ ] प्रशमरतिप्रकरणम् दोषप्रवृत्तावात्मानं बाधते, 'यथाऽयं प्रवृत्तस्तथाऽहमपि प्रवर्तयामि' इति परमपि बाधते । पञ्चेन्द्रियबलेन विबलो विगतबलः । 'पञ्चेन्द्रियबलेन महताऽभिभूतत्वादुन्मार्गयायिनाऽन्येन बलेन मार्गे प्रतिपादयितुमशक्यः' इति विबलः । रागद्वेषोदयेन निबद्धो नियमितः 'रागद्वेषपरिणतः ' इत्यर्थः ॥ १०३ ॥ यस्मादनालोचितगुणदोष एवंविधो भवति
अर्थ-यतः पाँचों इन्द्रियों के बलके आगे निर्बल हुआ और राग तथा द्वेषके उदयसे जकड़ा हुआ मनुष्य गुण और द्वेषका विचार नहीं करता और अपनेको, दूसरोंको तथा दोनोंको कष्ट देता है ।
भावार्थ-सोच-विचार कर काम करनेवाला मनुष्य गुण और दोषका विचार करके गुणोंमें प्रवृत्ति करता है और दोषोंको छोड़ देता है । जो गुण-दोषका विचार नहीं करता, वह दोषोंमें प्रवृत्त होकर अपनेको कष्ट देता है । तथा उसकी देखा-देखी दूसरे लोग भी दोषोंमें प्रवृत्त होते हैं । अतः वह दूसरोंको भी पीड़ाका कारण होता है । तथा पाँचों इन्द्रियोंके जालमें वह ऐसा फंस जाता है कि प्रयत्न करनेपर भी उसे सुमार्गपर लाना कठिन होता है।
तस्माद् रागद्वेपत्यागे पञ्चेन्द्रियप्रशमने च ।
शुभ परिणामावस्थितिहेतोर्यनेन घटितव्यम् ॥ १०४ ॥ टीका-यस्मादेवं तस्माद् यथा रागद्वेषयोरात्यन्तिकस्त्यागो भवति तथाऽनुष्ठेयम् । पञ्चेन्द्रियबलं यथा प्रशाम्यति-नोवृत्तशक्तिभवति तथा शुभैपरिणामावस्थितिहेतोर्यत्नेन घटितव्यम् । शुभ एव परिणामो यथा देशकुलविज्ञानादिष्वाप्यते, शुभ परिणामावस्थाने यो हेतुः, तस्य हेतोः प्रयत्नेनावाप्तिर्यथा स्यात् तथा चेष्टितव्यमिति ॥ १०४ ॥
___ अर्थ-अतः शुभ परिणामोंकी स्थितिके लिए राग और द्वेषको त्यागनेमें तथा पाँचों इन्द्रियोंको शान्त करनेमें प्रयत्न करना चाहिए।
भावार्थ-यतः गुण-दोषका विचार न करनेवाले मनुष्यमें उक्त दुराइयाँ पाई जाती हैं। अतः ऐसा प्रयत्न करना चाहिए, जिससे राग और द्वेषका सर्वथा अभाव हो तथा पाँचों इन्द्रियोंकी शक्ति शान्त हो। और उसके लिए शुभ भावोंको प्राप्त करने तथा उन्हें बनाये रखनेका प्रयत्न करना चाहिए।
तत्कथमनिष्टविषयाभिकाङ्गिणा भोगिना वियोगो वै । सुव्याकुलहृदयेनापि निश्चयेनागमः कार्यः ॥ १०५ ॥
१-ते पश्चेन्द्रियलेन महता-फ० ब०। २-क्यादति। ३-ल: विगतवलो राग-फ०० ४-गलब-ब०। ५.-राप्यते-प०।६-स्थानस्य यो-प०।७-व्यभित्याह-फ० ब०।