SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [षष्ठोऽधिकारः, अष्टौ मदस्थानानि टीका-देशो मगधाङ्गकलिङ्गादिरार्यः, शकयवनकिरातादिरनार्यः । कुलमिक्ष्वाकुहरिवंशादिकम् , अपरं म्लेच्छदासचाण्डालादिकुलम् । सल्लक्षणावयवसन्निवेशविशेषो देहः, अपरः कुब्जहुण्डसन्निवेशादिः । विज्ञानं विशिष्टो बोधो जीवादिपदार्थविषयः, अपरः प्रकृष्टाज्ञानपरिगतः किच्चिजज्ञः । दीर्घेणायुषा यथाकालविभागवर्तिना युक्तः, अपरस्तु गर्भकौमारयौवनावस्थादिषु अनियतायुः। बलं शारीरादि, तेन सम्पन्नो वीर्यवान्, अपरो दुर्बलः स्वशरीरकपि कथञ्चिद धारयति । भोगवाननेकेष्टशब्दादिसम्पदुपभोगसमर्थः, अपरो भोगरहितस्सतोऽपि च भोगानसमर्थो भोक्तुम् । हिरण्यसुवर्णधनधान्यादिविभूत्या युक्त एकः, अपरो दारिद्याभिभूतो जरदगी खण्डनिवसनः एषां देशादीनां समृद्धिपर्यन्तानां वैषम्यं विषमतां विलोक्य कर्मोदयजनिताम् , कथं केन प्रकारेण, विदुषां बुद्धिमतां नरकादिभवसंसारे रतिः प्रीतिर्भवति ? इति कर्मोदयनिमित्तं शुभाशुभलक्षणं देशादि विज्ञाय उद्वेगः संसारात्कार्यः। तस्माद् धर्मानुष्ठानादर एव श्रेयान् इति ।। १०२ ॥ ___ अर्थ-दश, कुल, शरीर, ज्ञान, आयु, बल, भोग और विभूतिकी विषमता देखकर विद्वानोंको इस नरकादिरूप संसारमें कैसे रति होती है ? भावार्थ-कोई मगध, अङ्ग, कलिङ्ग वगैरह आर्य देशमें जन्म लेता है । कोई शक, यवन, किरात वगैरह अनार्य देशमें जन्म लेता है। कोई इक्ष्वाकु, हरिवंश आदि उच्च कुलोंमें जन्म लेता है। कोई भिखारियों वगैरहके नीच कुलमें जन्मते हैं। किसीका शरीर शुभ लक्षण और शुभ अवयवोंसे युक्त है, और किसीका शरीर कुब्जक, हुंडक वगैरह संस्थानवाला है । किसीको जीवादि पदार्थों का विशिष्ट ज्ञान है , और कोई बिलकुल अज्ञानी है। किसीकी आयु खूब लम्बी और अपने समयपर पकनेवाली होती है, और कोई गर्भावस्थामें, अथवा कुमारावस्थामें अथवा भर जवानीमें ही मर जाता है । कोई बड़ा बली है और कोई बिलकुल निर्बल है, कोई अनेक भोगोंको भोगनेमें समर्थ है और किसीके शक्ति होते हुए भी या तो भोगनेको भोग नहीं हैं या भोग-सामग्री होते हुए भी भोगनेकी शक्ति नहीं है। एक सोना-चाँदी, धन-धान्य वगैरह विभूतिसे युक्त है तो दूसरा गरीबोमें दिन काटता है । इस विषमताको देखकर विद्वान् मनुष्य संसारसे कैसे प्रीति कर सकता है ? उन्हें तो संसारसे वैराग्य ही करना चाहिए । अतः धर्म-कार्यमें चित्त लगाना ही हितकर है। तथाऽपरं वैराग्यनिमित्तमादर्शयन्नाहवैराग्यके और भी निमित्त बतलाते है : अपरिगणितगुणदोषः स्वपरोभयबाधको भवति यस्मात् । पञ्चेद्रियबलविबलो रागद्वेषोदयनिबद्धः ॥ १०३ ॥ टीका-गुणाश्च दोषाश्च गुणदोषाः, अपरिगणितो अनादृता गुणदोषांश्च येनासौ अपरिगणितगुणदोषः । प्रेक्षापूर्वकारी गुणान् दोषांश्च विचार्य गुणेषु प्रवर्तते, दोषान् परिहरति । यश्चानालोचितगुणदोषः स खलु स्वपरोभयबाधको भवति । स्वमात्मानं बाद्यतेऽपरञ्च बाधते । १-जरदन्तीख-फ०, ब०। २-ताश्च अना-प० । ३-षा येना-प० ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy