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कारिका ९९-१००-१०१-१०२] प्रशमरतिप्रकरणम्
अर्थ-दूसरोंके तिरस्कार और निन्दासे तथा अपनी प्रशंसासे भव-भवमें नीचगोत्रकर्मका बन्ध होता है, जो भवोंकीअनेक परम्पराओंमें भी नहीं भोगा जा सकता।
भावार्थ-नीचगोत्रकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति बोस कोड़ाकोड़ो सागर-प्रमाण बतलाई गई है। अतः एक भवका बाँधा हुआ कर्म अनेक भवोंमें भी नहीं भोगा जा सकता । ऐसी दशामें भव-भवमें बाँधे हुए कर्मका भोग तो करोड़ों भवोंमें भी होना अशक्य है।
'कर्मोदयवशाच्च हीनादिजातिषु जन्म भवति नाकस्मात् ' इति दर्शयतिकर्मोदयके कारण ही नीच वगैरह जातियोंमें जन्म होता है, यह बतलाते हैं :
कर्मोदयनिर्वृत्तं हीनोत्तममध्यमं मनुष्याणाम् ।
तद्विधमेव तिरश्यां योनिविशेषान्तरविभक्तम् ॥ १०१ ॥ ___टीका-कर्मशब्देन गोत्रमेवाभिसम्बध्यते । हीनं नीचैर्गोत्रकर्मोदयात् , उत्तममुच्चैर्गोत्रकर्मोदयात् , मध्यमं व्यतिमिश्रकर्मोदयात्। मनुष्याणां तिरश्चां च त्रिविधमपि भवति तद्विधमेव तिरश्चाम् ' इति वचनात् । 'जघन्योत्तममध्यमम्' इत्यर्थः । 'योनिविशेषान्तरविभक्तम् । इति-तिर्यग्योनिविभेदेन मनुष्ययोनिभेदेन च विभक्तं कृतविभागम् । विशेषास्तु तिरश्चामेकद्वि. त्रिचतुःपञ्चेन्द्रियाख्याः, मनुष्याणां सम्मुर्छनगर्भजातिविशेषाः । अन्तरशब्दोऽन्यत्त्वप्रतिपादनार्थः। इति कारिकाशेतं विवृतम् ॥ १०१ ॥
अर्थ-मनुष्योंमें नीचपना, उच्चपना और मध्यमपना कर्मके उदयसे होता है। तिर्यञ्चोंमें भी उसी तरह जानना चाहिए । अन्तर केवल इतना है कि दोनोंमें योनिके भेदसे भेद पाया जाता है।
भावार्थ-यहाँपर 'कर्म' शब्दसे गोत्रकर्म लिया जाता है। नीचगोत्रकर्मके उदयसे नीचपन होता है, उच्च गोत्रकर्मके उदयसे उच्चपन होता है और दोनों कर्मोंके उदयके मेलसे मध्यपन होता है। मनुष्य और तिर्यञ्चोंमें ये तीनों ही 'पन' पाये जाते है । इसमें तिर्यञ्चयोनि और मनुष्ययोनिके भेदसे भेद है। तिर्यञ्चोंके भेद एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय हैं, और मनुष्यों के संमूर्च्छनजन्मवाले, गर्भजन्मवाले आदि भेद हैं।
____ एवमुक्तेन न्यायेन हीनादिजन्मप्रतिपत्तिः कर्मोदयजनितेति महद्वैराग्यकारणम् , तथेदमपरं वैराग्यस्य निमित्तमाख्याति
___इस प्रकार उक्त रीतिसे नीच वगैरह जन्मोंको कर्मोका फल जानकर महान् वैराग्य उत्पन्न होता है। अब वैराग्यका अन्य भी निमित्त बतलाते हैं :---
देशकुलदेहविज्ञानायुर्बलभोगभूतिवैषम्यम् ।
दृष्टा कथमिह विदुषां भवसंसारे रतिर्भवति ॥ १०२ ॥ १-सम्मूर्छिन-फ०, ब०। २-प्रतीयतेऽनेनैकस्या आर्यायाः प्रक्षिप्तत्वम् ।