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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [षष्ठोऽधिकारः, अष्टौ मदस्थानानि टीका-पित्रंन्वयः कुलम् । तच्च विस्तीर्ण लोकख्यातम् । तत्र चोत्पन्नो रूपपरिहीणकः पुरुषो योषिता विरूपा यस्यावयावा हुंडवामनादयः। बलं शारीरम् तेन परिहीणः सर्वस्य परिभूतः । श्रुतेन परिहीनोऽत्यन्तमूर्खः निकृष्टो मातृकामपि जानाति । मतिः-बुद्धिः, साऽपि हिताहितप्राप्तिपरिहारक्षमा नास्तीत्येतया परिहीणकः । शीलं सदाचारता द्यूतपरदाराऽनृतभाषणतस्करत्वनिष्ठुरत्वादिपरित्यागलक्षणम् । विभवो धनधान्यकनकरजतादिसम्पत् । विपुलेषु कुलेषूत्पन्नानपि जीवान् विरूपादिकानवलोक्य। ननु नियमेनैव कुलमानो गर्वः परिहर्तव्यः गर्भावकाशाभावादेव।८३॥
अर्थ-लोक-प्रसिद्ध कुलमें उत्पन्न हुए मनुष्यों को भी रूप, बल, शास्त्र ज्ञान, बुद्धि, सदाचार और सम्पत्तिसे शून्य देखकर कुलका मद निश्चय ही छोड़नेके योग्य है।
भावार्थ-बड़े भारी कुलमें जन्म लेनेपर भी स्त्री अथवा पुरुष यदि कुरूप हुआ, निर्बल हुआ, अत्यन्त मूर्ख हुआ, हित और अहितका विचार करनेकी बुद्धि न हुई, जुवारी, परस्त्रीगामी ( पर पुरुषगामी ), असत्यवादी और चोर हुआ, पासमें धन-धान्य सम्पदा न हुई, तो सभी उसका तिरस्कार करते हैं । अतः कुलका मद नियमसे नहीं करना चाहिए । क्योंकि उसमें गर्वके लिए कोई स्थान नहीं है।
अपि चऔर भी
यस्याशुद्धं शीलं प्रयोजनं तस्य किं कुलमदेन ।
स्वगुणांभ्यलङ्कृतस्य हि किं शीलवतः कुलमदेन ॥८४॥
टीका-शीलमेव यस्योपहतमसदाचारानुष्ठानात् तस्ये त्याज्य एव कुलमदः प्रयोजनाभावात् । शुद्धे तु शीले भवतु नाम गर्वः, दुःशीलस्य हि गर्वो दौःशीलमेव संर्वद्धयति । स्वगुणा रूपबलश्रुतबुद्धिविभवादयो यस्य सन्ति सः तैरेवालङ्कतः अतः शीलवतोऽपि न किंचित् कुलमदेन । इति परिफल्गुः कुलमदः, इति परिहार्यः ॥ ८४ ॥
अर्थ-जिसका शील दूषित है, उसका कुलके मद करनेसे क्या प्रयोजन है ? और जो शीलवान् है, वह अपने गुणोंसे ही भूषित है । उसे भी कुलका मद करनेसे क्या प्रयोजन है ?
भावार्थ-शीलके शुद्ध होनेपर गर्व करना ठीक भी है, दुःशील मनुष्यका गर्व तो दुःशीलता को ही बढ़ाता है। किन्तु जो रूप, बल, श्रुत, बुद्धि, सम्पत्ति वगैरहसे भूषित होते हुए शीलवान् है, उसे भी कुलका मद करना शोभा नहीं देता; क्योंकि उसके गुण ही मद करनेके लिए पर्याप्त हैं । उसे कुलका मद करनसे क्या लाभ ?
'रूपमदोऽपि न कार्यः' इति दर्शयतिरूपका भी मद न करना चाहिए, यह बतलाते हैं :
१-पितुरन्वयः-प०। २-वा हुडाकुन्जवाम-फ०, ब०। ३-णालङ्क-मु०। ४-स्यान्याय्य एवप०। ५-वर्द्ध-प०।