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________________ कारिका ८४-८५-८६] प्रशमरतिप्रकरणम् कः शुक्रशोणितसमुद्भवस्य सततं चयापचयिकस्य । रोगजरापाश्रयिणो मदावकाशोऽस्ति रूपस्य ॥ ८५ ॥ टीका-शुक्रं पित्रा निसृष्टं वीर्यम् । शोणितं मातुर्योनौ स्फुटितस्फोटकश्रुतम् । एतस्माद्वयात् समुद्भवस्य शरीरस्य । बीजविन्दोराधानात्प्रभृति कललाबुर्दमांसपेश्याद्याकारेणोपचयं गच्छन् गर्भः शिरोग्रीवाबाहःस्थलोदरादिभावेन वर्द्धते, रसहारिण्या च जनन्यभ्यवहृताहाररसोपयोगात् सम्पूर्णाङ्गावयवो नवमे मासि दशमे वा मातुरुदरानिर्गच्छति । ततोऽपि स्तनक्षीरपीतकाभ्यवरात् कुमारयौवनमध्यमस्थविरावस्थाभिः शरीरं चयापचययुक्तम् । पथ्येष्टाहारपरिणतेरुपचयो वृद्धिः; अपथ्यांनिष्टानपानोपयोगादपचयो हानिः । तौ चयापचयो यस्य तच्चयापचयिकम् । निरुजस्य वा उपचयः, मान्द्यादिभिरपचयः । रोगों ज्वरातीसारकासश्वासादयः । जरा पूर्वावस्थात्यागेनोत्तरावस्थावस्कन्दनं यावदत्यन्तस्थविरावस्थेति । रोगजरयोरपाश्रयि स्थानं शारीरकमाश्रयः । एवञ्च शुक्रादिसंपर्कनिष्पन्ने देहे को मदवकाशः किं गर्वबीज रूपस्येति ? ॥ ८५॥ अर्थ-यह रूप रज और वीर्यसे उत्पन्न होता है । सदैव घटता-बढ़ता रहता है । रोग और जराका घर है। उसमें मद करनेका क्या स्थान है ? भावार्थ-पिताके वीर्य और माताके रजसे शरीर बनता है। शुक्राधानसे लेकर कलल, अर्बुद माँसपेशी वगैरह आकार धारण करता हुआ गर्भ, सिर, गर्दन, हाथ, छाती, उदर वगैरह रूपसे बढ़ता है, और माताके द्वारा खाये गये भोजनके रससे अङ्ग उपाङ्ग पूरे बन जानेपर नौवें अथवा दसवें माहमें माताके उदरसे बाहर आता है। उसके बाद भी माताके स्तनोंका दूध पीकर कुमार, यौवन, प्रौढ़ और वृद्ध अवस्थाको धारण करता है। अतः शरीर हानि और वृद्धिसे युक्त है । पथ्य और रुचिकर भोजनके मिलनेसे पुष्ट होता है और अपथ्य तथा अरुचिकर भोजनके मिलनेपर दुर्बल हो जाता है । अथवा नीरोग दशामें पुष्ट होता है और मन्दाग्नि वगैरह होनेसे दुर्बल हो जाता है । ज्वर, अतोसार, खाँसी, श्वास वगैरह रोगोंका तथा बुढ़ापेका घर है । ऐसे शरीरमें कौन ऐसी बात है, जिससे इसके रूपका गर्व किया जावे? नित्य परिशीलनीये त्वग्मांसाच्छादिते कलुषपूर्णे । निश्चयविनाशधर्मिणि रूपे मदकारणं किं स्यात् ॥ ८६ ॥ टीका-नित्यमिति सर्वदा, परिशीलनीयं संस्कर्तव्यम् । यस्मान्नवभिः 'श्रोतोद्वारैः सदैवान्तर्गतं मलं दूषिकासिंघाननिष्ठयूतलालारेतोमूत्रपुरीषस्वेदाधुद्वमति शरीरकम् । तदपनयन १-बीजम्-प० । २-स्फोटकच्युतम् मु०। ३-वश-प० । ४-बाहु हस्त पाद पेरादि ! भाविन वर्द्धते प०। ५-रपीतकाभ्यवहा-फ०, ब०। ६-ध्यस्थ-प०। -स्थाभावि श-प०। ८-ध्यान्मिष्टान्न-फ०, ब०। ९-रोगो प० । १०-सादिः प० । ११-एवं शु-फ०, ब०. । १२-श्रोत्रद्वा-फ० ब० ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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