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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [षष्ठोऽधिकारः, अष्टौ मदस्थानानि वाल्लभ्य लोकस्य प्रियपिण्डकत्वम् । श्रुतमागमः शास्त्रपरिज्ञानम् । एतदेव जात्यादिश्रुतान्तं मदृहेतुत्वात् मदो गर्वः, तेनान्धाः। यथान्धाश्चक्षुर्विकला न किञ्चित्प्रेक्षणीयं पश्यन्ति, तथा जात्यादिगर्वाष्टकान्धा हिताहितविचारणाररहिताः क्लीबा विषयगृद्धाद्रमका इवातृप्ताः । तन्मात्रपरितोषादिह परलोकहितं न पश्यन्तिनकुर्वन्ति चेति ॥ ८॥ ___ अर्थ-वैसे ही परिणाममें मधुर और गणधरादिकके द्वारा दया-बुद्धिसे कहे गये हितकारक सत्यको निरादर करनेवाले, राग और द्वेषके उदयसे स्वच्छन्दचारी होते हैं। ___ जाति, कुल, रूप, बल, लाभ, बुद्धि, लोकप्रियता और शास्त्रज्ञानके मदसे अन्धे हुए विषयलोलुपी मनुष्य इस लोक और परलोकमें हितकारक वस्तुको भी नहीं देखते हैं । भावार्थ-यद्यपि गणधर वगैरहने भव्यजीवोंके कल्याणके लिए जो सत्य और हितकारकर उपदेश दिया है, वह असह्य परीषह और इन्द्रियोंको रोकने वगैरहके कारण प्रारंभमें दुख देनेवाला लगता है; किन्तु अन्तमें उसका फल मीठा ही होता है। परन्तु स्वच्छन्दचारी मनुष्य उसकी ओर ध्यान नहीं देता। जिस प्रकार अन्धे मनुष्य देखने योग्य वस्तु भी नहीं देख सकते हैं वैसे ही जाति वगैरहके मदसे अन्धे हुए विषय-लोलुपी मनुष्य भी हित और अहितका विचार नहीं करते हैं। 'संसारे परिभ्रमतां सत्त्वानां स्वकर्मोदयात् कदाचिद् ब्राह्मणजातिः, कदाचिच्चाण्डालजातिः, कदाचित् क्षत्रियादिजातयः, न नित्यैकैव जातिभवति ' इति दर्शयन्नाह संसारमें भ्रमण करते हुए जीवोंको अपने अपने कर्मके उदयसे कभी ब्राह्मण जाति, कभी चाण्डालकी जाति और कभी क्षत्रिय वगैरहकी जाति होती है । कोई जाति सर्वदा नहीं रहती। यही कहते हैं : ज्ञात्वा भवपरिवर्ते जातीनां कोटिशतसहस्रेषु । हीनोत्तममध्यत्वं को जातिमदं बुधः कुर्यात् ॥ ८१ ॥ टीका-भवो नारकादिजन्म, तस्य परिवर्तः परिभ्रमणम्-नारको भूत्वा तिर्यग्योनौ मनुष्यजातौ वा जायते स्वकर्मवशात् , भूयश्चैकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजातावुत्पद्यते। तत्र एकेन्द्रियाणां स्वस्थाने शर्कराबालकादिभेदा बहवः । एवमप्लेजोवायवनस्पतीनामपि यावन्न्यश्च योनयस्तावन्त्येव जातिशतसहस्रणि । तथा देवानामपीति । अतएव चतुरशीतियोनिलक्षः संसारः । स चोत्पद्यमानो हीनोत्तममध्यमेषु कुलेषु जन्म लभते । एवंविधमसमअसं वा संसार मवगम्य ज्ञात्वा को नाम विद्वान् जातिमदमालम्बेत् ॥ ८१॥ अर्थ संसारमें परिभ्रमण करते हुए लाखों-करोड़ों जातियोंमें जघन्य, उत्तम और मध्यमपने को जानकर कौन बुद्धिमान् जातिका मद करेगा ?
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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