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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पञ्चमोऽधिकारः, पञ्चेन्द्रियविषयाः ते जात्यहेतुदृष्टान्तसिद्धमविरुद्धमजरमभयकरम् । सर्वज्ञवारसायनमुपनीतं नाभिनन्दन्ति ॥ ७७॥ टीका-त एवं सुखर्द्धिरसगौरवेषु सक्ताः । जात्या हेतवःस्वाभाविकास्तथ्याः। उत्पत्तिः स्थितिय॑यश्च यदस्ति । तदुत्पद्यतेऽवतिष्टते विनश्यति च, तस्माद् उत्पत्तिमत्वात्, स्थितिमत्वाद् विनष्टत्वाश्च सर्वे पदार्था नित्याश्चानित्याश्च इति सप्तभङ्गीमन्तो भवन्ति। दृष्टान्ताश्चाङ्गल्यादयः । यथा एकस्मिन्नेव कालेऽङ्गली मूर्तत्वेनावास्थिता, वक्रत्वेन विनष्टा, ऋजुत्वेनोत्पन्ना उत्पादस्थितिव्ययवती, तथा आत्मादयः सर्वे पदार्था, जात्यहेतुभिदृष्टान्तैश्च सिद्धं प्रतिष्ठितमव्याहतमविरुद्ध मिति । न खलु नित्यानित्ययोर्विरोधोऽस्ति द्रव्यथितया नित्यत्वमन्वयं समङ्गीकृत्य घटकपालशकलादिषु सर्वत्रोविशिष्टात् ‘मृद्' इति प्रत्ययः । पर्यायास्तु घटकपालादयः पर्याय याङ्गीकरणात् तैरनित्यत्वम् । भिन्ननिमित्तत्वाच्च न सहानवस्थानलक्षणो विरोधोऽस्ति । तस्मादविरुद्धम् । सर्वज्ञवाग्रसायनम्-सर्वज्ञवाग् द्वादशाङ्गप्रवचनं तदेव रसायनम् । यथा रसायनमुपयुज्यमानं नीरजं वपुः करोति वलीपलितवर्जितम्, तथा भवद्वचनमप्युपयुज्यमानं विधिना सकलरुजापहारि भवति जन्ममरणप्रपञ्च निरासश्चेति । अविद्यमाना जरा यत्र तदजरम्। विगतशरीरत्वाद्भयमपि मरणादिकमत एव तत्र नास्ति । जरामरणाभावत्वाद् 'अजरभयकरम्' इत्युक्तम् । उपनीतं ढौकितमर्पितं वा नाभिनन्दन्ति-न परितुष्टास्तदुपयोगं कुर्वन्ति ॥ ७७॥ ___ अर्थ-वे स्वाभाविक हेतुओं और दृष्टान्तोंसे सिद्ध विरोध रहित अजर और अभयकारी सर्वज्ञदेवके वचनरूपी रसायनको पाकर भी उसका आदर नहीं करते हैं। भावार्थ जो कुछ सत् है वह उत्पन्न होता है, ठहरता है और नष्ट होता है । अत: उत्पत्ति, स्थिति और विनाशसे युक्त होनेके कारण सभी पदार्थ नित्य भी होते हैं और अनित्य भी होते हैं। जिस पुकार मुड़ी हुई अङ्गलाको फैलानेपर एक ही समयमें उसमें तीनों धर्म पाये जाते हैं। अङ्गली रूपसे वह अवस्थित रहती है, टेदेपनकी अपेक्षासे वह नष्ट होती है, और सीधापनकी अपेक्षासे वह उत्पन्न होती है। क्योंकि टेढ़ीसे सीधी करनेपर टेढ़ापन चला जाता है और सीधापन आ जाता है। इसी प्रकार आत्मा आदिक सभी पदार्थ स्वाभाविक हेतुओं और दृष्टान्तोंसे सप्तभंगीमय सिद्ध हैं। तथा यह विरोध रहित भी है; क्योंकि नित्यता और अनित्यतामें कोई विरोध नहीं है। द्रव्यकी अपेक्षासे नित्य मानकर ही घट, कपाल वगैरहको मिट्टो कहा जाता है। और पर्यायार्थिकनयको माननेपर वे घट-कपाल वगैरह अनित्य हैं । अतः नित्यताका निमित्त भिन्न है और अनित्यताका निमित्त भिन्न । इसलिए दोनों धर्म एक जगह रह सकते हैं और दोनोंमें कोई विरोध नहीं है । अतः निर्दोष हेतुओं और दृष्टान्तोंसे सिद्ध तथा विरोध रहित सर्वज्ञभगवान्का द्वादशाङ्गरूप प्रवचन रसायनके समान है। जैसे रसायनके सेवनसे शरीर झुर्रियों और सफेद बालोंसे रहित होकर नीरोग होजाता है, उसी प्रकार १. विनाशित्वाच इति प्रतिभाति । २ द्रव्यार्थितया-प०।३-मन्वयांशमङ्गो-प०।४-घटपटकपालादिषुफ०००।५-त्राविनष्टोमृदिति-प०।६ यतया-प०। ७ मुपभुज्य--फ०ब। ८-रासश्चे-फ० ब०।९-न्तोति-फ
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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