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कारिका ७४-७५-७६ ]
प्रशमरतिप्रकरणम् वाली सूर्य-किरणोंके प्रकाशमें जो धूलके कण दिखाई पड़ते हैं, उन्हें त्रुटिरेणु कहते हैं । उसके बराबर अति तुच्छ विषयोंको भी पाकर वे उन्हींमें आसक्त हो जाते हैं । और अपनेको अजर-अमर मानकर आगामी संकटका भय नहीं करते।
एतदेव प्रत्यवायादिदर्शयिषया स्पष्टतरमभिधत्तेअब उसी संकटका खुलासा करते हैं :
केचित् सातद्धिरसातिगौरवात् साम्प्रतेक्षिणः पुरुषाः ।
मोहात्समुद्रवायसवदामिषपरा विनश्यन्ति ॥ ७६ ॥
टीका केचिदेवाविदितपरमार्थाः । सातं सुखं सद्बदनीयम् । ऋद्धिर्विभवः कनकरजतपद्मरागेन्द्रनीलमरकतादिमणिसम्पत् गोमहिष्यजाविककरितुरगरथादिसंपच्च । रसाः तिक्तकटुककषायाम्लमधुरलवणाख्याः । एतेषु सातादिषु गौरवम्-आदरः सुखार्थः, सम्पदर्थः इष्टरसाभ्यवहारार्थश्चादरः । अतीव सुष्ठु गौरवम् । अतिगौरवाद्धेतोःसाम्प्रतमेव वर्तमानकालमेवेक्षन्ते नागामिनम् । त एवंविधाः पुरुषाः मोहात्-अज्ञानात् मोहकर्मोदयाद्वा समुद्रवायसवदामिषपरा विनश्यन्ति मृतकरिकलेवरापानप्रविष्टमांसास्वादनगृद्धकाकवत् । जलधिमध्यमध्यास्यमाने कलेवरे विनिर्गत्य तेनैवापानमार्गेण सकलं दिग्मण्डलमवलोक्य विश्रान्तिस्थानमपश्यन् निलीयमानश्च पयसि निधनमुपगतः । ' आमिषपराः' इति रसगौरवस्यैव प्रत्यवायबहुलतां दर्शयामास प्रकरणकारः। न तथा सातड़िगौरवे बहुप्रत्यपाये यथा रसगौरवम्, मद्यमांसकुणपादिषु प्रवृत्तिः प्राणवधमन्तरेण दुस्सम्पाद्या ॥ ७६ ॥
अर्थ-कुछ अविनयी मनुष्य सुख, ऋद्धि और रसमें अत्यन्त आदर रखनेके कारण केवल वर्तमान कालको ही देखते हैं । और मोहके वशीभूत होकर मांसके लोभी समुद्री कौवेकी तरह नाश को प्राप्त होते हैं। " भावार्थ जो परमार्थको नहीं जानते वे सांसारिक सुख, सम्पत्ति और इष्ट रसका स्वाद लेनेमें ही मग्न रहते हैं और उन्हींकी प्राप्तिका प्रयत्न किया करते हैं । अतः वे केवल वर्तमानको ही देखते हैं, आगेका विचार नहीं करते । ऐसे मनुष्य अज्ञानके वशीभूत होकर मरे हुए हाथीके शरीरमें गुदा-मार्गसे घुसकर मांस खानेमें आसक्त कौवेकी तरह नाशको प्राप्त होते हैं । जैसे एक कौवा मांस खानेके लिए हाथोके पेटमें घुस गया। जोरकी वर्षाके कारण हाथी बहकर समुद्रमें जा पहुँचा। वेचारा कौवा हाथीकी गुदासे निकलकर स्थान पानेके लिए. इधर-उधर उड़ा और कोई स्थान न पाकर पुनः उसी हाथीके पेटमें जा घुसा, और इस तरह अन्तमें पानीमें डूबकर मर गया। इसी प्रकार विषय-सुखके लालची मनुष्य भी संसार-समुद्रमें डूब जाते हैं । 'मांसके स्वादका लोभी' (आमिषपरा) विशेषण लगानेसे ग्रन्थकारने रसनेन्द्रियके विषयकी आसक्तिको अधिक बुरा बतलाया है । क्योंकि हिंसा किये विना मद्य, मांस वगैरहकी प्रवृत्ति नहीं होती।
१. स्वादगृ-फ० व०। २-मध्यास्य-प० ।