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________________ कारिका ७१-७२-७३ ] प्रशमरतिप्रकरणम् सम्प्रति विनयस्य पारम्पर्येण पर्यन्तवर्ति मोक्षाख्यं फलं दर्शयन्नाहअब यह बतलाते हैं कि परम्परासे विनयका फल मोक्ष है : विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिविरतिफलं चाश्रवनिरोधः ॥ ७२ ॥ टीका-विनयस्य फलं शुश्रूषा-श्रोतुमिच्छा। यदाचार्य उपदिशति तत् सम्यक शुश्रूषते, श्रुत्वा च अनुतिष्ठति । गुरोः सकाशादाकर्ण्य किं फलमिहावाप्यते ? अत आह-गुरुशुश्रूषायाः फलं श्रुतज्ञानम्-' आगमज्ञानलाभः' इत्यर्थः । ज्ञानस्य किं फलम् ? विरतिः-आश्रव द्वारेभ्यो निवृत्तिः । विरतेः फलमाश्रवद्वारस्थगनम् । विरतौ सत्यामाश्रवद्वाराणि स्थगितानि भवन्ति । ततश्चाश्रवद्वारस्थगनात् संवरो जायते। फलभूतः संवृतात्मा भवति, अपूर्वकर्मप्रवेश निरोधः ॥७२॥ अर्थ-विनयका फल सुननेकी इच्छा है । गुरुके सुननेका फल श्रुतज्ञानकी प्राप्ति है । ज्ञानका फल विरति है, और विरतिका फल आस्रवका रुकना-संवर है। भावार्थ-आचार्य जो उपदेश देते हैं, उसे भले प्रकार सुनता है और सुनकर उसका पालन करता है । यह विनयका फल है । गुरुके मुखसे शास्त्र-श्रवण करनेसे आगमोंका ज्ञान होता है। यह गुरुसे सुननेका फल है। शास्त्र-ज्ञानके होनेपर उन कामोंका करना छोड़ देता है, जिनके करनेसे कर्मोंका आस्रव होता है । यह ज्ञानका फल है। उन कामोंसे विरत होनेपर आस्रवके द्वार बन्द हो जाते हैं। अतः आस्रवके द्वारोंके बन्द हो जानेसे संवर होता है । अतः विरतिका फल नये कर्मोंके आस्रवको रोकना है। संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जराफलं दृष्टम् । तस्मात् क्रियानिवृत्तिः क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् ॥ ७३ ॥ टीका-संवरस्य फलं तपोऽनुष्ठानं प्राक्तनकर्मक्षपणार्थम् । तपसि बलं तपोबलम्-तपसि कर्तव्ये शक्तिविशेषः। तपसस्तु निर्जराफलं कर्मपरिशाटनम्। तस्मात् कर्मापगमात् क्रिया निवर्तते, सैव फलं निर्जरायाः। क्रियानिवृत्तेर्निरुद्धयोगःस्यात् अयोगित्वात् ॥७३॥ अर्थ-संवरका फल तपस्या करनेकी शक्तिका होना है । तपका फल निर्जरा देखा गया है। संचित कर्मोकी निर्जरा होनेसे निवृत्ति होती है, और क्रियाकी निवृत्तिसे मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति रूप योग रुक जाता है। भावार्थ-विनयका साधारण ही फल नहीं है । पहली कारिकामें कहे गये क्रमके अनुसार विनयसे संवरकी प्राप्ति होती है, और संवरसे तपःशक्ति बढ़ती है, तप निर्जराका कारण है, और निर्जराकी क्रियासे छुटकारा मिलता है, तथा क्रिया-निवृत्तिसे मन, वचन, कायरूप योगोंका निरोध होता है । इस प्रकार एक विनयगुणके द्वारा योगनिरोध तक देखा जाता है। "
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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