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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पञ्चमोऽधिकारः, पञ्चेन्द्रियविषयाः एवं च हितोपदेशेनानुगृह्णतः शिष्यान् आचार्यस्य कः प्रत्युपकारः शिष्येण विधेयः' इत्याह
इस प्रकार हितकारक उपदेशके द्वारा शिष्योंका उपकार करनेवाले आचार्यका शिष्यको जो प्रत्युपकार करना चाहिए, वह बतलाते है :
दुष्पतिकारौ मातापितरौ स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन् ।
तत्र गुरुरिहामुत्र च सुदुष्कतरप्रतीकार ः॥७१ ॥
टीका-दुःखप्राप्यः प्रतीकरो दुष्कर इति वा दुष्प्रतीकारः । मातापितरौ तावद् दुष्प्रतीकारौ। माता तु जातमात्रस्यैवाभ्यङ्गस्नानस्तनक्षीरदानमूत्राशुचिक्षालनादिनोपकारेण वृद्धिमुपनयति, कल्पवार्ताद्याहारप्रदानेनोपकारवती, अदृष्टपूर्वस्या कृतोपकारस्य वाऽपत्यस्य दुष्प्रतीकारा। नहि तस्याः प्रत्युपकारः शक्यते कर्तुम् । पिताऽपि हितोपदशदानेन शिक्षाग्राहणेने भक्तपरिधानप्रावरणादिनोपग्रहेण अनुगृह्णानो दुष्प्रतीकारः । स्वामी राजादि त्यानां जलदानाकरादिना कृत्वा भवत्युपकारकः। भृत्यास्तु न तथा प्रत्युपकारसमर्था। प्राणव्ययमहार्ण यद्यपि श्रियमानयन्ति स्वामिनो भृत्यास्तथापि पूर्वमकृतोपकाराणामेव भृत्यानामुपकारकः स्वामी, भृत्यास्तु कृतोपकाराः प्रत्युपकुर्वन्ति। गुरुः–आचार्यादिः। स च दुष्प्रतिकारः सन्मार्गोपदेशदायित्वात्, शास्त्रार्थप्रदानात्, संसारसागरोत्तारणहेतुत्वात् । इहामुत्र च-इहलोके सुदुर्लभतरः प्रतीकारो यस्य गुरोरिति सु दुर्लभतरः प्रतीकार इति ॥ ७१ ॥
अर्थ-इस लोकमें माता पिता स्वामी और गुरुका प्रत्युपकार करना बड़ा कठिन है । उसमें गुरुका प्रत्युपकार तो इस लोकमें भी अत्यन्त दुष्कर है, और परलोकमें भी अत्यन्त कठिन है ।
भावार्थ-माता-पिताका प्रत्युपकार बड़ा दुष्कर है। माता तो बच्चे के जन्म लेते ही तेलकी मालिश करना, दूध पिलाना, मूत्र वगैरह गन्दगीको धोना आदि उपकारके द्वारा उसका पालन-पोषण करती है । जिस बच्चेको पहले उसने कभी देखा भी नहीं था और जिसने उसका कोई उपकार भी नहीं किया है, उसे वह दूध पिलाकर और आरोग्यवर्धक आहार देकर उसका उपकार करती है। अतः माताके उपकारका बदला चुकाना बड़ा कठिन है । पिता भी हितकारक उपदेश देता है । पढ़ातालिखाता है, भोजन-वस्त्र वगैरहसे लालन-पालन करता है। अतः उसके उपकारका बदला चुकाना भी कठिन है । स्वामी राजा वगैरह अन्न-जल देकर सेवकोंका उपकार करते हैं। सेवक उस उपकारका बदला नहीं चुका सकता । यद्यपि सेवक अपने प्राण देकर स्वामीकी लक्ष्मीको बढ़ाता है, तथापि स्वामी पहलेपहल कोई उपकार किये बिना ही सेवकोंका उपकार करते हैं, किन्तु सेवक स्वामीका उपकार पाकर ही उसका उपकार करते हैं । अतः उनके उपकारका बदला चुकाना भी कठिन है । किन्तु गुरु तो सन्मार्गका उपदेश देते हैं, शास्त्रोंका अर्थ बतलाते हैं और संसार-समुद्रसे पार लगाते हैं । अतः उनके उपकारका बदला चुकाना तो न इस जन्ममें ही शक्य है और न अगले जन्म में ही शक्य है।
१ कल्प (स्य) वा-मु०। २-णेन संरक्षाणिनातक्त-प०। ३ कृत्वेत्युपकारक:-मु०।