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________________ कारिका ६८-६९-७० ] प्रशमरतिप्रकरणम् ४९ 'अहर्निशं पादसेवा, सम्यक् क्रियानुष्ठाम्, नृजलमल्लकढौकनम् , दण्डकग्रहणम्, तत्प्रवृत्तौ गमनं निर्विचारम्, तदभिहितानुष्ठानम्, इत्याद्याराधनम्-अभिमुखीकरणम् । तत्परेणेति । तदुपयुक्तेन भवितव्यमिति ॥ ६९ ॥ ___ अर्थ-यतः शास्त्रके सभी आरंभ गुरुके आधीन हैं, अतः जो अपना हित चाहता है, उसे गुरुकी सेवामें तत्पर होना चाहिए। भावार्थ-जो शास्त्रके अर्थका कथन करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं। सूत्रोंके पढ़ने और उनके अर्थको सुननेमें प्रवृत्त होना, काल-ग्रहण, स्वाध्याय आदि शास्त्रके आरम्भ कहे जाते हैं। ये सभी आरंभ गुरुकी कृपापर निर्भर हैं । अतः रात-दिन गुरुकी पाद-सेवाके लिए तैयार रहना चाहिए । जैसा वे कहें, वैसा करना चाहिए। उनके उपकरण वगैरह रखने उठानेमें तत्पर रहना चाहिए । गुरौ चोपदिशति 'पुण्यवानहमिति, य एवमनुग्राह्यो गुरूणाम्, बहुमन्तव्य एव न धिक्कार्यः' __ अब यह बतलाते हैं कि जब गुरु उपदेश देते हों तो उस समय ऐसा विचारे कि मैं बड़ा पुण्यवान् हूँ जो मुझपर गुरुका इतना अनुग्रह है। ऐसा विचारना चाहिए धन्यस्योपरि निपतत्यहितसमाचरणधर्मनिर्वापी । गुरुवदनमलयनिसृतो वचनसरसचन्दनस्पर्शः ॥ ७० ॥ टीका-धनं ज्ञानादि तल्लब्धा धन्यः पुन्यवान् । तस्योपरि निपतति 'वचनसरसचन्दनस्पर्शः ' इति वक्ष्यति कीहगसौवचनसरस चन्दनस्पर्शः ? अहितसमाचरणधर्मनिर्वापी । अहितम्-उत्सूत्रम्, समाचरणम्-क्रियानुष्ठानम्, अहितसमाचरणमेव धर्मः-तापविशेषः, तं निर्वापयति-अपनयति निरस्यति तच्छीलश्चेति । ‘गुरुवदनमलयनिसृतः' इति । गुरोः-आचार्यादेर्वदनं मुखम्, तदेव मलयपर्वतः, तस्मानिसृतो निर्गतः। वचनमेव सरसचन्दनं स्नेहोपवृंहितहितोपदेशर्गभम् , तदेव वदनम्, तस्य स्पर्शः शीतो धर्मापनयनसमर्थः । मलये तु सरसं चन्दनमार्द्रमभिनवच्छिन्नम् , तस्य स्पर्शो धर्मापहारी भवति सुतराम् । अथवा रसश्चन्दनस्पर्शः । रसो द्रवता 'चन्दनपङ्कः सपानीयः' इत्यर्थः ॥ ७० ॥ __ अर्थ-शास्त्र विरुद्ध आचरणरूपी तापको दूर करनेवाला गुरु महाराजके मुखरूप मलय पर्वतसे करनेवाले वचनरूपी सरस चन्दनका स्पर्श विरले ही पुण्यवान्को प्राप्त होता है। - भावार्थ-जिस प्रकार सरस चन्दनको लगानेसे जीवकी दाह मिट जाती है, वैसे ही गुरु महाराजके स्नेह युक्त हितकारी वचनोंको सुनकर भव्यजनोंका अहितरूपी संताप मिट जाता है। गुरु महाराजका उपदेश सुनकर वे शास्त्र विरुद्ध आचरणको छोड़कर शास्त्रविहित आचरण करने लगते हैं। गुरुकी यह अनुकम्पा विरले ही पुण्यशाली जीवोंको प्राप्त होती है। ' रसश्चन्दनस्पर्शः' ऐसा भी पाठ है। १सरसच-मु०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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