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कारिका ६४ ]
प्रशमरतिप्रकरणम् उत्पन्न हुआ और मरा न हो । अथवा नीचा मुख किये हुए मल्लकके आकार अधोलोक है। थालीके आकार मध्यलोक है । ऊपर मुख किये हुए मल्लकके आकार ऊर्ध्वलोक है । इस लोकमें नारक, तिर्यञ्च मनुष्य और देव बसते हैं, तथा जन्म, मरण, बुढ़ापा आदि उपद्रवोंसे यह व्याप्त है । लोकके इस तत्त्वको जो जानता है । शीलके अट्ठारह हजार भेदोंको आगे कहेंगे । जिसने उनके धारण करनेकी प्रतिज्ञा की है। शुद्धिका प्रकर्ष होनेसे जिसके परिणाम अपूर्व हैं । पाँच महाव्रतोंकी पच्चीस भावनाएँ बतलाई गई हैं । अथवा आगे अनित्यत्व आदि बारह भावनाओंका कथन करेंगे । उन भावनाओंका जो चिन्तन करता रहता है । तथा आगममें वर्णित अमुक बात प्रधान है और अमुक बात उससे भी प्रधान है, इत्यादि विशेषको जो जानता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यग्चारित्ररूप वैराग्यके मार्गमें स्थित है । संसारम रहनेसे डरता है । अपने हित-मोक्ष-सुखमें ही जो मुख्यतासे प्रीति करता है, उसके ही आगे कही जानेवाली शुभ चिन्ता होती है । निर्जराका कारण होनेसे इस चिन्ताको शुभ कहा है।
तामेव चिन्तां स्पष्टयनाहउसी चिन्ताको स्पष्ट करते हैं :
भवकोटीभिरसुलभं मानुष्यं प्राप्य कः प्रमादो मे ।
न च गतमायुर्भूयः प्रत्येत्यपि देवराजस्य ॥ ६४ ॥ टीका-कोटिशब्द संख्यावाची। स च अनन्तसंख्यायाः सुचकः। भवा नारकतिर्यग्देवाख्याः, तेषां बहीभिः कोटिभिः अनन्ताभिरतीताभिरपि न सुलभं दुर्लभमेव, मनुष्यस्य भावो मानुष्यम्, 'मनुष्यजन्म' इत्यर्थः । तदेवंविधमतिदुःप्रापं प्राप्य कोऽयं मम प्रमादोऽवबुध्यमानस्यैवमैननुष्ठानम् । प्रमादो ज्ञानादिषु मुक्तिसाधनेषु। कदाचिदिदमाशङ्केत 'मम मनुष्यत्वमेवास्तु सर्वदा सुन्दरमक्षीणम् ' इति । तच्च न, यतः 'न च गतमायुः' इत्यादि । प्रतिक्षणमुदयप्राप्त वैधमानमनुभूयते, अनुभवाच्च परिगलति । न च क्षीणं पुनरावर्तते, सौधर्माधिपतेरपि शक्रस्य न प्रत्यागच्छति किं पुनर्नरस्येति ॥ ६४ ॥
अर्थ-करोड़ों भवोंमें दुर्लभ मनुष्य पर्यायको प्राप्त करके मुझे यह प्रमाद क्यों ? देवराज इन्द्रकी भी बोती हुई आयु पुनः लौटकर नहीं आती।
भावार्थ-यहाँ कोटि शब्द संख्याका वाचक है । और वह अनन्तका सूचक है । अर्थात् अनन्त भव बीतनेपर भी मनुष्यका भव मिलना बड़ा ही दुर्लभ है । इस प्रकारके दुर्लभ मनुष्य-जन्मको पाकर मोक्षके साधन ज्ञान वगैरहमें मुझे प्रमाद नहीं करना चाहिए । शायद कोई यह सोचे कि मनुष्यपर्याय सर्वदा बनी रहेगी; किन्तु ऐसा सोचना ठीक नहीं है; क्योंकि प्रतिसमय उदयमें आनेवाली आयु अपना फल देकर क्षीण होती जाती है, और क्षीण हुई आयु तो सौधर्मस्वर्गके इन्द्रकी भी लौटकर नहीं आती-मनुष्य की तो बात ही क्या है !
१ कोटिशब्दः सु० । २ नरकति-मु०।३-मनुष्ठानम् मु० ४ वेद्यमानमनुभावाच परिगलति मु०।