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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पञ्चमोऽधिकारः, पञ्चेन्द्रियविषयाः ___ तत्त्वार्थका श्रद्धान करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं । सामायिक वगैरहको चारित्र कहते हैं । तपके अनशन वगैरह बारह भेद हैं। स्वाध्यायके वाचना पृच्छना वगैरह पाँच भेद हैं। किसी वस्तुमें मनके एकाग्र करनेको ध्यान कहते हैं । धर्म्य और शुक्ल शुभ ध्यान हैं । धर्मविषयक एकाग्र चिन्तनको धर्म्यध्यान कहते हैं। उसके चार भेद हैं:-अज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । अनन्तविशुद्ध परिणामी जीवके शुक्लध्यान होता है । उसके चार भेद हैं:-पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्यपरतक्रियानिवृत्ति । प्रमादके योगसे किसीके घात करनेको हिंसा कहते है । असत्यवचन अनेक प्रकारका होता है:-१ सत्को असत् कहना, जैसे, आत्मा नहीं है । २ असत्को सत् कहना, जैसे-आत्मा व्यापक है । ३ विपरीत वचन, जैसे, गायको घोड़ा कहना । ४ कडुवे वचन बोलना । ५ सावध वचन--इस मार्गमें, हिरनोंका झुण्ड गया है, ऐसा शिकारीको बतला देना । हिंसाके कारण होनेसे कटुक सावध वचन भी असत्य ही कहे जाते हैं । चुरानेकी बुद्धिसे परके धनको हरना चोरी है । स्त्रीवेद, पुवेद और नपुंसक वेदके उदयसे रमण करनेको मैथुन कहते हैं। यह मेरी वस्तु है,' 'मैं इसका स्वामी हूँ' इस तरहके ममत्वको परिग्रह कहते हैं, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रमें ममत्वको ही परिग्रह कहा है। परिग्रह अथवा चोरीके लक्षणमें रात्रिभोजनका अन्तर्भाव कर लिया गया है। क्योंकि रात्रिभोजन अति लालसाका सूचक है । इस प्रकार मूलगुणोंको कहकर उत्तरगुणोंको कहते हैं: ___ न स्वयं मारता है, न दूसरेसे मरवाता है और न दूसरेको मारता हुआ देखकर उसकी अनुमोदना करता है। ये तीन कोटियाँ हैं। तथा, न स्वयं पकाता है, न दूसरेसे पकवाता है और न किसीको पकाता हुआ देखकर उसकी अनुमोदना करता है। ये भो तीन कोटियाँ हैं । तथा, न स्वयं खरीदता है, न दूसरेसे खरीदवाता है और न दूसरेको खरीदते हुए देखकर उसकी अनुमोदना करता है । ये भी तीन कोटियाँ हैं । इस प्रकार मिलकर ये नौ कोटियाँ होती हैं । ये दो प्रकारकी होती हैं:एक अविशुद्ध कोटि और दूसरी विशुद्ध कोटि । आदिकी छह कोटियाँ अविशुद्ध कोटियाँ हैं और अन्तकी तीन विशुद्ध कोटियाँ हैं। आहारके खोजनेको उद्गम कहते हैं । जो आहार उससे शुद्ध होता है वह उद्गमशुद्ध है। काटे गये खतमें पड़े हुए धान्यके कणोंके चुगनेको उञ्छ कहते हैं । जिस प्रकार उञ्छ किसी किसान वगैरहको कष्टदायक नहीं होता, वैसे ही जो आहार न स्वयं बनवाया गया है, न गृहीताके संकल्पसे बनाया गया है और न उसकी उसमें अनुमति ही है, उस आहारको लेनेसे किसी प्राणीके घातका भय नहीं रहता । इस प्रकारके आहारसे जीवन-यात्रा करनेमें जिसका अधिकार है, अर्थात् जिनभगवान्ने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त जीवादि सात पदार्थोंका कथन किया है । और गणधरदेवने उन पदार्थोंको द्वादशांगरूपमें संकलित किया है । जैसा भगवान्ने कहा है और गणधरोंने अवधारण किया है-'जीवादि सात तत्त्व वैसे ही हैं, अन्यथा नहीं हैं। इस प्रकारसे जो उनका सद्भाव मानता है। जहाँपर जीव और अजीव द्रव्य रहते हैं, उसे लोक कहते हैं । उसके तत्त्वको अर्थात् इस लोकमें बालकी नोकके बरावर भी ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ त्रस और स्थावररूपसे यह जीव
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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