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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पञ्चमोऽधिकारः, पञ्चेन्द्रियविषयाः भावार्थ-संगीतकी ध्वनिको सुननेका इच्छुक कोई मनुष्य मनको रागसे भरकर अपने कानोंको उधर लगाता है । जब अभीष्ट रूपको देखनेकी इच्छा होती है तो उधर आँखें फेरता है। इसी प्रकार शेष इन्द्रियाँ भी प्रयोजनके वशसे घ्राण आदि इन्द्रियोंका व्यापार करती हैं। इस तरह जैसा जैसा प्रयोजन होता है, उसके अनुसार उस विषयमें लोग इष्ट अथवा अनिष्टकी कल्पना कर लेते हैं। अन्येषां यो विषयः स्वाभिप्रायेण भवति पुष्टिकरः । स्वमतिविकल्पाभिरतास्तमेव भूयो द्विषन्त्यन्ये ॥ ५१ ॥ टीका-विवक्षितपुरुषाधेऽन्ये, तेषां यो विषयः शब्दादिः, स्वाभिप्रायेण उल्वणरागाणां स्वमनःपरिणामवशात् परितोषमाधत्ते । अपरे तु स्वमतिक्किल्पाभिरताः प्रबलद्वेषवशात् स्वमनोविकल्पशिल्पघटनया तमेव विषयं पुनरनिष्टतया द्विषन्ति ।। ५१ ॥ अर्थ-किन्हींको अपने अभिप्रायके अनुसार जो विषय अच्छा लगता है, उसी विषयसे दूसरे लोग अपने अभिप्रायके अनुसार द्वेष करते हैं। भावार्थ-संसारमें ऐसा नहीं है कि जो विषय एक मनुष्यको अच्छा लगता है, दूसरेको भी वह अच्छा लगना चाहिए और जो एकको बुरा लगता है, दूसरेको भी वह बुरा लगना चाहिए, वास्तवमें विषयकी अच्छाई-बुराई मनुष्यके प्रयोजनके ऊपर निर्भर है । यदि मनुष्यका किसी पदार्थसे कुछ प्रयोजन सिद्ध होता है तो वह उस पदार्थसे राग करता है, और दूसरेका यदि उससे कुछ अर्थ सिद्ध नहीं होता है तो वही पदार्थ उसे अरुचिकर हो जाता है। 'एवमनवस्थितेप्रमाणो विषयाः परमार्थतो न वाऽप्रियाः' इति दर्शयबाहइस प्रकार अस्थिर प्रेमवाले विषय वास्तवमें न इष्ट होते हैं और न अनिष्ट, यह बतलाते हैं: तानेवार्थान् द्विषतस्तानेवार्थान प्रलीयमानस्य । निश्चयतोऽस्यानिष्टं न विद्यते किश्चिदिष्टं वा ॥ ५२ ॥ टीका-तानेव इष्टान् शब्दादीन् द्विषतो विषयभुजस्तानेव च द्वेष्याननुप्रलीयमानस्य तन्मयतां गच्छतः समुपजातरागस्य, निश्चयतः-परमार्थतो नैकान्तेनैवास्य संभवति किञ्चिदिष्टमनिष्टं वा ॥५२॥ अर्थ-यह जीव उन्हीं विषयोंसे द्वेष करता है और उन्हीं विषयोंसे राग करता है । अतः निश्चयसे इसका न कोई इष्ट है और न कोई अनिष्ट है। भावार्थ-मनुष्य जिन विषयोंसे राग करता है, उन्हींसे द्वेष भी करता है, इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ये विषय इष्ट अथवा अनिष्ट नहीं हैं । मनुष्य ही अपनी रागद्वेषमयी परणतिके कारण अपने प्रयोजनके अनुसार उनमें इष्ट अथवा अनिष्ट बुद्धि रखते हैं । यदि यह विषय ही इष्ट अथवा अनिष्ट होते तो जो विषय एक मनुष्यको इष्ट होता, वह सभीको इष्ट ही होना चाहिए और जो एकको
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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