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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पञ्चमोऽधिकारः, पञ्चेन्द्रियविषयाः तथा ये हिरन वगैरह एक एक इन्द्रियके विषयमें आसक्त होकर विनाशको प्राप्त होते हैं, किन्तु जो पाँचों ही इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त होकर भी जीता है, उसका जीना अचरजकी ही बात है। उपसंहार करते हुए इसी बातको कहते हैं: एकैकविषयसंगाद् रागद्वेषातुरा विनाष्टास्ते । किं पुनरनियतात्मा जीवः पञ्चेन्द्रियवशातः ॥ ४७॥ टीका-शब्दाद्येकैकविषयसंगाद् रागद्वेषवशगतत्वादातुरास्ते कुरङ्गादयो विनाशं गताः। मान्धाभिभूतापथ्याश्यातुरवत् । ' किं पुनरनियतात्मा ? ' इति । नात्मा नियमं ग्राहितः –न निवारितः शब्दादिविषयेषु प्रीतिमनुबन्नन् पञ्चानामिन्द्रियाणां वशवर्ती । अत एव आर्तःअप्राप्तान विषयानभिलषन् प्राप्तांश्चावियोगतश्चिन्तयन्नति ॥ ४७ ॥ ___ अर्थ-जब राग और द्वेषसे पीड़ित वे हिरन वगैरह एक एक विषयके सम्बन्धसे विनाशको प्राप्त हुए तब पाँचों इन्द्रियोंकी पराधीनतासे पीड़ित असंयमी जीवका कहना ही क्या है ? भावार्थ-मन्दाग्निसे पीड़ित अपथ्यसेवी बीमारकी तरह, राग और द्वेषसे पीड़ित उक्त हिरन वगैरह जन्तु शब्दादिक एक एक विषयके संसर्गसे मृत्युके मुखमें चले जाते हैं, तब जो शब्दादिक विषयोंमें प्रीति करनेसे अपनी आत्माको नहीं रोकता है तथा पाँचों इन्द्रियोंकी विषय-तृष्णासे पीड़ित होकर अप्राप्त विषयोंकी इच्छा करता है, और प्राप्त विषयोंके विछोह न होनेकी चिन्ता करता है, उसका तो कहना ही क्या है ? . 'न च कश्चिच्छब्दादिविषयः समस्ति योऽभ्यस्यमानः सर्वथा तृप्तिं करिष्यति' इत्येतद् प्रदर्शयन्नाह अब यह बतलाते हैं कि ऐसा कोई विषय नहीं है, जिसके बार-बार सेवन करनेसे सर्वथा तृप्ति होती हो यह बतलाते हैं कि ऐसा कोई न हि सोऽस्तीन्द्रियविषयो येनाभ्यस्तेन नित्यतृषितानि । तृप्तिं प्राप्नुयुरक्षाण्यनकमार्गप्रलीनानि ॥ ४८ ॥ टीका नैवास्ति इन्द्रियविषयः स शब्दादिः, येनाभ्यस्तेन-पुनः पुनरासेव्यमानेन, नित्यतृषितानि-नित्यमेव साभिलाषाणि सपिपासानि तृप्तिं प्राप्नुयुः अक्षाणि-इन्द्रियाणि, अनेकस्मिन् मार्गे शब्दादावनेकभेदे प्रकर्षण लीनानि तन्मयतां गतानि तदासक्तानि, पुनः पुनराकांक्षन्त्येव स्वविषयान् ॥ ४८ ॥ ____अर्थ-इन्द्रियका ऐसा कोई विषय नहीं है, जिसके बार-बार सेवन करनेसे सर्वदाकी प्यासी और अनेक विषयोंमें आसक्त इन्द्रियोंकी तृप्ति हो सकती हो। १ विषयेषु समस्तेषु अभ्य-भ० आ० । २ नित्यं तृ-भ. आ० ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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