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________________ कारिका ४५-४६] प्रशमरतिप्रकरणम् भावार्थ-हाथीको पकड़नेके लिए अनेक हथिनियाँ छोड़ी जाती हैं । वे उसे अपनी सूंड़ोंसे छूती हैं, फलों और पत्तोंसे भरी टहनियोंको सूंडमें दबाकर उसके ऊपर ढोरती हैं। उनके स्पर्शसे मोहित हुआ हाथी किसी हथिनीको स्पर्श करता है, किसीको दाँतोंसे धक्का देता है। किसीको आगे करता है, किसीको पीछे करता है, और किसीको अपनी बगलमें करता है । इस प्रकार क्रीड़ा करते हुए उस हाथीको वे हथिनियाँ हाथी पकड़नेके स्थानपर ले जाती हैं, वहाँ उसके पकड़े जानेपर हाथीवान् उसपर सवार हो जाता है और उसके मस्तकमें अङ्कुश गागड़ाकर उसे वशमें कर लेता है । इसी प्रकार स्पर्श इन्द्रियके फेरमें पड़कर मनुष्यको भी बहुत दुःख सहना पड़ता है। ' इत्थमेकेन्द्रियविषयगृद्धानामपायद्वारमात्रमुक्तम् ' इति उपसंहरति___ इस प्रकार एक एक इन्द्रियके विषयोंमें आसक्त हुए जीवोंके दुःखोंका संकेतमात्र करके उसका उपसंहार करते हैं:-- एवमनके दोषाः प्रणष्टशिष्टेष्टदृष्टिचेष्टानाम् । दुर्नियमितेन्द्रियाणां भवन्ति बाधाकरा बहुशः ॥ ४६॥ टीका-एवम्-उक्तप्रकारेण प्रत्यक्षप्रमाणसमाधगम्य एकैको दोषः प्रदर्शितः । तदारेण च परलोकेऽप्यनिवृत्तविषयसङ्गानां बहवो दोषा नारकतिर्यग्योनिभवादिषु भवन्ति । केषामेते दोषाः ? प्रणष्टशिष्टेष्टदृष्टिचेष्टानाम् । शिष्टा विवेकिनः परलोकपथप्ररूपणानुष्ठाननिपुणाः, तेषामिष्टा दृष्टिचेष्टा । दृष्टिः सन्मार्गोपदेशि ज्ञानम् । चेष्टा क्रियानुष्ठानम् । उभयावेते शिष्टेष्टदृष्टिचेष्टे प्रणष्ट येषां ते प्रणष्टशिष्टेष्टदृष्टिचेष्टाः, तेषाम् । दुर्नियमितेन्द्रियाणाम्-दोषेषु न नियमं ग्राहितानि इन्द्रियाणि यै :-श्रोत्रादिविषयव्यसनानि दोषाः-तेषां दुर्नियमितेन्द्रियामाम् । बाधाकराः पीडाकराः शारीरमानसाशर्मकारिणोऽनेकशः संसारोदधौ परिवर्तनमाचरतामिति ॥ ४६॥ " अर्थ-जिनके शिष्ट जनोंके योग्य ज्ञान और चारित्र नहीं हैं तथा जिनकी इन्द्रियाँ भी वशमें नहीं हैं, उनमें इस प्रकारके पीड़ा पहुँचानेवाले प्रायः अनेक व्यसन पाये जाते हैं । ___ भावार्थ-इस प्रकार उक्त रीतिसे इन्द्रियों के विषयोंमें आसक्त करनेकी एक एक बुराई बतलाई है, जो प्रत्यक्षगोचर है । जो समझदार मनुष्य परलोकके उपयोगी मार्गका कथन और आचरण करनेमें निपुण होते हैं उन्हें शिष्ट कहते हैं। उन्हें सन्मार्गका उपदेश करना और स्वयं उसका आचरण करना प्रिय होता है । जो ऐसे नहीं हैं और विषयोंके संगसे विरत नहीं हुए हैं, उन्हें उनके कारण नरक, तिर्यश्च आदि योनियोंमें अनेक शारीरिक और मानसिक पीड़ाएँ भोगनी पड़ती हैं। अपि चैते कुरङ्गादयो विनाशभाजः संवृत्ता एकैकविषयासक्ताः। यः पुनः पञ्चस्वपि इन्द्रियार्थेषु सक्तः स किल यजीवति तदेव चित्रम् ' इति उपसंहरन्नाह १ इत्यमेवेन्द्रिय-मु०। २ सम्प्राप्ता मु० ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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