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________________ ३२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [पञ्चमोऽधिकारः, पञ्चेन्द्रियविषयाः तेन याशी या क्रियते क्रिया तया तया दुःखमादत्ते-दुःखमनुभवति। कमैव वा दुःखम् , कारणे कायोपचारात् । तदादत्त-'दुःखकारणं कर्म बन्नाति' इत्यर्थः ॥ ४०॥ अर्थ-दुःखका बैरी और मुखका चाहनेवाला प्राणी भले-बुरेका विचार न करता हुआ, मोहसे अन्धा होकर जो जो काम करता है, उससे दुःखको ही भोगता है। भावार्थ-सुख पानेकी इच्छासे विना विचारे मोहमें पड़कर प्राणी जो कुछ मनसे, वचनसे, और कायसे चेष्टा करता है, वह चेष्टा कर्मबन्धका कारण है, और कर्मबन्ध दुःखका कारण होनेसे दुःखरूप है। अतः कारणमें कार्यका उपचार करके 'चेष्टासे दुःखका अनुभव करता है' ऐसा कह दिया है। वैसे तो उस चेष्टासे कर्मबन्ध करता है, और कर्मबन्ध से दुःख भोगता है। तत्र पञ्चसु इन्द्रियार्थेषु एकैकविषयप्रवृत्तावपि प्रत्यपायान् पञ्चभिदृष्टान्तैर्दर्शयति पाँचों इन्द्रियोंके पाँच विषय हैं। उनमें से एक एक विषयमें भी प्रवृत्ति करनेपर जो आपदाएँ. आती हैं, उन्हें पाँच दृष्टान्तोंसे बतलाते हैं: कलरिभितमधुरगान्धर्वतूर्ययोषिविभूषणरवाद्यैः । श्रोत्रावबद्धहृदयो हरिण इव विनाशमुपयाति ॥ ४१ ॥ टीका-कला अस्मिन् विद्यन्त इति कलं मात्रायुक्तं ग्रामरागरत्यिा युक्तम् । रिभितं मधुरं श्रोत्रसुखम् । गान्धर्वविशेषणान्येतानि। तूर्य वादिनविशेषः, तस्य ध्वनिः। योषितां विभषणानि नूपुररसनाकिंकिणिकादिध्वनितानि, तेषां रवः शब्दः । एवमादिभिर्मनोहारिभिः शब्दैः । श्रोत्रेन्द्रियावबद्धहृदयः-श्रोत्रे श्रोत्रेन्द्रियविषयेऽवबद्धं हृदयं येन स श्रोत्रावबद्धहृदयः । कुरको विनाशमानु प्राप्नोति गोचर्याखेटके। तद्वदपरोऽपि प्रमादीति ॥४१॥ अर्थ-गायकके मनोहर और मधुर संगीत, वाध तथा स्त्रियोंके आभूषणोंके शब्द वगैरहसे जिसका हृदय श्रोत्रेन्द्रियके विषयमें आसक्त है, वह हिरनकी तरह विनाशको प्राप्त होता है। भावार्थ-जिसमें कला है उसे कल कहते हैं। उतार-चढ़ाव तथा ग्राम-रागकी रीतिसे युक्त कानोंको सुख देनेवाला गायकोंका संगीत, बाजोंकी मधुर ध्वनि, और स्त्रियोंके विछुए, करधनी, घुघरू आदि आभूषणोंका शब्द-इस प्रकारके मनोहारी शब्दोंको सुनकर जिसका मन कर्णेन्द्रियके विषयमें फंस जाता है, वह उसी प्रकार अपना सर्वनाश करता है, जिस प्रकार शिकारीके संगीतकी ध्वनिमें आसक्त होकर हिरन अपना सर्वनाश कर बैठता है। गतिविभ्रमेगिताकारहास्यलीलाकटाक्षविक्षिप्तः । रूपावेशितचक्षुः शलभ इव विपद्यते विवशः ॥ ४२ ॥ टीका-गतेर्विभ्रमः-महणप्रकारः । सविकारा गतिः ' इत्यर्थः। इङ्गितं निरीक्षितं स्निग्धया दृष्टयाऽवलोकनम् । आकारः-तन्मुखोरुसन्निवेशविशेषः। हास्यं सविलासं 'सलीलं १ तादृशा मु०। २ पदमिदं दीर्घसमस्तं नास्ति मु. प्रतौ। ३ इति मु० ।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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