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कारिका ३८-३९-४० ]
प्रशमरतिप्रकरणम्
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परिणामको लेश्यों कहते हैं । जिस प्रकार दीवार बगैरहपर चित्रोंको स्थायी बनानेके लिए रंगोंमें सरेस डाल देते हैं, सरेससे रंग पक्का और स्थायी हो जाता है । इसी प्रकार ये लेश्याएँ कर्मबन्धकी स्थितिको दृढ़ करती हैं । अर्थात् कृष्ण, नील, और कापोत लेश्यारूप तीव्र परिणामोंसे कर्मोकी स्थिति अति दीर्घ और दुःख देनेवाली होती है । तथा तैजस, पद्म और शुक्ल लेश्यासे शुभ कर्मों की स्थिति अधिक और शुभ फल देनेवाली होती है । ये तीनों केश्याएँ उत्तरोत्तर विशुद्ध, विशुद्धतर और विशुद्धतम होती हैं ।
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'तस्मिन् पुनः कर्मणि बद्धे आत्मसात्कृते किं भवति ? ' इत्याहआत्मा के साथ कर्मोंका बन्ध होजानेपर क्या होता है ? यह बतलाते है:
कर्मोदयाद् भवगतिर्भवगतिमूला शरीरनिर्वृत्तिः । देहादिन्द्रियविषया विषयनिमित्ते च सुखदुःखे ॥ ३९ ॥
टीका - उदिते विपाकप्राप्ते तस्मिन् कर्माणि भवो नरकादिगतयः तत्रोत्पत्तौ भवगतौ सत्यां नरकादिशरीरानिवृत्तिः । भवगतिः मूलं बीजं यस्याः सा भवगतिमूला शरीरनिर्वृत्तिः । देह निर्वृत्तेच स्पर्शनादन्द्रियनिवृत्तिः । ततः स्पर्शनादिविषयग्रहणशक्तिः । ततश्चेष्ट विषयनिमित्त: सुखानुभवः, अनिष्टविषयनिमित्तश्च दुःखानुभवः ॥ ३९ ॥
अर्थ – कर्मके उदयसे जीवको नरकादिक गतियोंमें जाना पड़ता है । नरकादिक गतियों में जाने से शरीर बनता है। शरीरमें इन्द्रियाँ होती हैं । इन्द्रियोंमें विषयको ग्रहण करनेकी शक्ति होती है और विषयोंके ग्रहण करनेसे सुख-दुःख होते हैं ।
भावार्थ- बाँधा हुआ कर्म जब उदयमें आता है, तो वह जीवको नरकादिक गतियोंमें ले जाता है । वहाँ शरीर बनता है। शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं, और उनमें विषयोंको ग्रहण करने की शक्ति होती है । इष्ट विषयके भोगसे सुख और अनिष्ट विषयके भोगसे दुःख होता है ।
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अत्र च स्वभावादेव सर्वः प्राणी सुखमभिलषति दुःखाचोद्विजते । मोहान्धो गुणदोषानविचार्य सुखसाधनाय यतमानो यां यां क्रियामारभते सा साऽस्य दुःखहेतुर्भवति इति दर्शयति
इस संसारमें स्वभावसे ही सभी प्राणी सुख चाहते हैं, और दुःखसे डरते हैं। मोहसे अन्धा हुआ जीव भले बुरेका विचार न करके सुखकी प्राप्तिके लिए जो जो काम करता है, वह उसके दुःखके ही कारण होते हैं । इसी बातको ग्रन्थकार निम्न कारिकासे बतलाते हैं:
दुःखद्विट् सुखलिप्सुमहान्धत्वाददृष्टगुणदोषः ।
यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्ते ||४०||
टीका -- दुःखं द्वेष्टीति दुःखद्विट् । सुखं लिप्सते तच्छीलश्च सुखलिप्सुः । मोहोऽष्टाविं शतिभेदः, तेनान्धो न गुणं दोषं वा पश्यति । चेष्टा कायिकी वाचिकी मानसी वा क्रिया ।
१- कषाय से रंगी हुई योग-प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं । २ देहनिवृत्तिश्च मु० ।