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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [चतुर्थोऽधिकारः, अष्टविधं कर्म के कारण उन बँधे हुए कर्मोका अनुभवन अर्थात् विपाक होता है, तथा जिस प्रकारकी लेश्या होती है, उसी प्रकारका उत्कृष्ट, मध्यम, और जघन्य स्थितिबन्ध होता है, और उसी प्रकारकी उसमें रस-शक्ति पड़ती है। तत्र ‘लेश्या' इति कः पदार्थः ? कति वा भवन्ति लेश्याः इत्याहलेश्याका स्वरूप तथा उसके भेद बतलाते हैं: ताःकृष्णनीलकापोततैजसीपद्मशुक्लनामानः । श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यः ॥३८॥ टीका-षट् लेश्या:-मनसः परिणामभेदाः। स च परिणामस्तीवोऽध्यवसायोऽशुभो - जम्बूफलबुभुक्षुषटपुरुषदृष्टान्तादिसाध्यः । अपरे त्वाहुः- 'योगपरिणामो लेश्या। यस्मात् कायवाग्व्यापारोऽपि मनःपरिणामापेक्षस्तीव्र एवाशुभो भवति। अशुभशुभकर्मद्रव्यसदृशाः स्वान्तःपरिणामा जायन्ते प्राणिनां वर्णकाश्चेति । काः (के) ? हरितालहिंगुलिकादयः, तेषां कुड्यादौ चित्रकर्माण स्थैर्यमापादयति श्लेषो वर्णानां बन्धे दृढीकरणम् । एवमेता लेश्याः कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यः। तीव्रपरिणामाः स्थिति कर्मणामतिदीर्घा विदधति दुःखबहुलां कृष्णनील कापोतारव्या निकाचनावस्थापनेन । तैजसीपद्मशुक्लनामानः शुभस्य कर्मबन्धस्यानुफलदाः शुभबहुलामेव कर्मस्थितिं विदधति महती विशुद्धां विशुद्धतरा विशुद्धतमाश्च उत्तरोत्तरा भवन्तीति ॥३८॥ अर्थ-कृष्ण, नील, कापोत, तैजस, पद्म और शुक्ल-ये लेश्याके छह भेद हैं । जिस प्रकार सरेससे रंग पक्का और स्थायी हो जाता है, उसी प्रकार ये लेश्याएँ भी कर्मबन्धकी स्थितिको दृढ़ करनेवाली होती हैं। भावार्थ-लेश्याओंके छह भेद हैं। परिणामविशेषको लेश्या कहते हैं । जामुन खानेके इच्छुक पुरुषोंके दृष्टान्तको लेकर उन पुरुषों के अपने अपने जैसे तीव्र, मन्द, या मध्यम परिणाम थे, वैसी ही उनकी लेश्या जाननी चाहिए । अन्य आचार्यों का मत है कि योगपरिणामको ही लेश्या कहते हैं। क्योंकि शरीर और वचनका व्यापार मनके परिणामकी अपेक्षासे ही तीव्र होता है, और तीव्र होनेसे अशुभ होता है। आशय यह है कि लेश्या मनमें होनेवाले भावोंकी दशाका नाम है। किन्तु अन्य आचार्य कायिक और वाचनिक क्रियाको भी लेश्या कहते हैं। उनका कहना है कि मनुष्य जब कुछ करता है, या बोलता है, तब भी उसके करने या बोलनेमें मनके भावोंकी ही मुल्यता रहती है। मनमें यदि क्रोध होता है, तो उसकी शारीरिक-क्रिया और वाचनिक-क्रियामें बराबर उसका असर पाया जाता है । अतः योग १षट् लेश्यानां मेदाः । स च परिणामापेक्षः ती-मु०२ परिणामापेक्षस्ती-ब० । ३ हिंगुलकाप०। ४ महतां विशुद्धा वि• मु०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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