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________________ २९ कारिका ३६-३७] प्रशमरतिप्रकरणम् अर्थ-इस प्रकृतिके अनेक भेद हैं। तथा स्थिति, अनुभाग और प्रदेशकी अपेक्षासे उसके बन्ध और उदयके तीव्र, मन्द और मध्यम भेद होते हैं। भावार्थ-पूर्वोक्त प्रकारसे उत्तरप्रकृतियोंके एक सौ बाईस मेद होते हैं। स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धकी अपेक्षासे वह प्रकृतिबन्ध तीव्र, मन्द अथवा मध्यम भेद होता है, तथा उसका उदय भी तीव्र, मन्द अथवा मध्यम होता है । तीव्र परिणामोंसे तीव्र प्रकृतिबन्ध होता है, और मध्यम परिणामोंसे मध्यम प्रकृतिबन्ध होता है । बन्धमें विशेषता होनेसे उदयमें भी होती है, आशय यह है कि जब प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति होती है, तब उसका अनुभव और प्रदेशबन्ध भी उत्कृष्ट होते हैं, और उससे उस उत्कृष्ट स्थितिमें बन्ध और उदय-दोनों तीव्र होते हैं। इसी प्रकार जब प्रकृतिकी स्थिति जघन्य होती हैं, तो अनुभव और प्रदेश भी जघन्य होते हैं, और उससे स्थितिका बन्ध-उदय मन्द होता है । इसी तरह मध्यममें जानना चाहिए। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होता है। मोहका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होता है। नाम और गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होता है । वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध वारह मुहूर्त होता है । नाम और गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध आठ मुहूर्त होता है। शेष कर्मोंका अन्तर्मुहूर्त स्थितिबन्ध होता है । विपाकको अनुभागबन्ध कहते हैं । शुभ अथवा अशुभर्कमका जब बन्ध होता है, उसी समय उसमें रस विशेष भी पड़ता है। उस रस विशेषके अनुभवको विपाक कहते हैं । जब गति वगैरह स्थानोंमें कर्मका उदय आता है, तब वह विपाक अपने अपने नामके अनुसार होता है। कर्मदलिकोंके समूहको प्रदेशबन्ध कहते हैं। जिस प्रकार एक आत्म-प्रदेशमें अनन्त दलिक रहते हैं। तथा अन्यकर्मोके भी अनन्त दलिक रहते हैं। बन्धके कारण कहते हैं: तत्र प्रदेशबन्धो योगात्तदनुभवनं कषायवशात् । स्थितिपाकविशेषस्तस्य भवति लेश्याविशेषेण ॥ ३७॥ टीका-तत्र तेषु चतुर्षु बन्धभेदेषु प्रदेशबन्धस्तावत् योगात् मनोवाक्कायलक्षणाद् भवति- आत्मप्रदेशेषु ज्ञानावरणादिपुद्गलोपचयो जायते' इत्यर्थः । तस्य प्रदेशबद्धस्य कर्मणोऽनुभवनं कषायवशाद 'विपाकः' इत्यर्थः। स्थितिविशेषः पाकविशेषश्च तस्य लेश्याविशेषजनितो भवति 'उत्कृष्टः मध्यमः जघन्यः' इत्यर्थः ॥ ३७ ॥ अर्थ-योगमें प्रदेशबन्ध होता है, कषायसे अनुभागबन्ध होता है, और लेश्याकी विशेषतासे स्थिति और विपाकमें विशेषता आती है। भावार्थ-बन्धके चार भेदोंमें से प्रदेशबन्ध योगसे होता है । अर्थात् मनोयोग, वचनयोग, और काययोगके कारण आत्माके प्रदेशोंमें ज्ञानावरणादि कर्मपुद्गलोंका संचय होता है, और कषाय
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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