SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ रायचन्द्रजनशौस्त्रमालायाम् [चतुर्थोऽधिकारः, अष्टविधं कर्मः आयुकी उत्तरप्रकृतियाँ चार हैं—नारकायु, तिर्यश्चायु, मनुष्यायु और देवायु । छहको सातसे गुणा करनेपर बयालीस होते हैं । अतः नामकर्मकी उत्तरप्रकृतियाँ बयालीस होती हैं:-गति, जाति, शरीर, अङ्गोपाङ्ग, निर्माण, बन्धन, संस्थान, संघात, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, बानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आताप, उद्योत, उच्छास, विहायोगति, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, त्रस, स्थावर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुखर, दुःस्वर, सूक्ष्म, वादर, पर्याप्ति, अपर्याप्ति, स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनादेय, यश, अयश और तीर्थकर नाम । गोत्रकी उत्तरप्रकृतियाँ दो हैं:-उच्चगोत्र और नीचगोत्र । अन्तरायकी उत्तरप्रकृतियाँ पाँच हैं:-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय,, और वीर्यान्तराय। इस प्रकार इन आठों कर्मोकी उत्तरप्रकृतियाँ सत्तानवें होती हैं । नामकर्मकी उत्तरप्रकृतियों के मेदोंको मिलानेसे, जैसे गतिके चार भेद हैं, नामकर्मकी उत्तरप्रकृतियाँ ६७ होती हैं। और शेष कर्मोंकी उत्तरप्रकृतियाँ पचपन होती हैं। दोनोंको मिलानेसे १२२ उत्तरप्रकृतियाँ होती हैं। उनमेंसे भी बन्ध १२० ही प्रकृतियोंका होता है । सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके दलिक ही विशुद्ध होनेपर सम्यक् व कहे जाते हैं, तथा उसी मिथ्यावके विशुद्ध दलोंको सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं। प्रकृतिरियमनेकविधा स्थित्यनुभागप्रदेशतस्तस्याः । तीव्रो मन्दो मध्य इति भवति बन्धोदयविशेषः ॥ ३६॥ __टीका-एवमियं प्रकृतिरनेकविधा ' द्वाविंशत्युत्तरशतभेदा' इत्यर्थः । तस्याश्च प्रकृतेः स्थित्यनुभागप्रदेशबन्धेभ्यः स्थितिबन्धानुभागबन्धप्रदेशबन्धाः तेभ्यः प्रकृतिबन्धविशेषो भवति, तीवः मन्दः मध्य इति वा । उदयविशेषोऽपि तीव्रादिभेदः प्रकृतीनां भवति । तीव्राशयस्तदा. श्रयेषु वर्तमानस्तीवं प्रकृतिबन्धं करोति, मन्दाशयो मन्दम्, मध्याशयो मध्यमिति । बन्धविशेषाच्चोदय इति । तत्र स्थितिबन्धो ज्ञानदर्शनावरणवेद्यान्तरायाणां त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टः। मोहस्य स्थितिबन्ध उत्कृष्टः सप्ततिसागरोपमकोटीकोट्यः । नामगोत्रयोः स्थितिबन्धो विंशतिसागरोपमकोटीकोट्यः । प्रकृष्टः स्थितिबन्ध आयुषः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि । वेदनीयस्य जघन्या बन्धस्थितिदशमुहूर्ता । नामगोत्रयोरष्टौ मुहूर्ता । शेषकर्मणाममुहूर्तस्थितिः। अनुभागबन्धो विपाकाख्यः कर्मणः शुभस्याशुभस्य वा बन्धकाल एव रसविशेष निर्वर्तयति । तस्यानुभवनं विपाकः । स यथा नामकमणः गत्योदिस्थानेषु विपच्यमानोऽनुभूयते। प्रदेशबन्धस्तु, एकस्मिन्नात्मप्रदेशे ज्ञानावरणपुद्गला अनन्ताः, तथा शेषकर्मणामपीति ॥ ३६ ॥ १ नामकर्मणि मु० । २ गत्यादिषु स्थानेषु मु०।
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy